महिला : कल और आज

वीणा सिन्हा

द्रौपदी का चीर हरण करते समय दुर्योधन को न तो बलशाली भीष्म पितामह और न ही शक्ति शाली कर्ण ने ही रोका, युद्धिष्ठिर के लिए भी तो द्रौपदी तो सिर्फ एक वस्तु थी तभी तो उसने द्रौपदी (पत्नी) को जुए के दांव पर लगा दिया बिना किसी हीनभाव के ।

रावण की यौन पिपासा की वजह से ही सीता जीवन भर अपने पति से प्रताडि़त रहीं । अग्नि परीक्षा से संतुष्टि नहीं हुई मर्यादा पुरुषोतम राम को, जंगल वापस भेजकर ही रहे । अहिल्या पर आसक्त इन्द्र ने छल से उनके साथ संसर्ग किया तो महर्षि पति ने शाप देकर अहिल्या को पत्थर बना दिया । ऐसी स्थिति रही है हमारे समाज की पौराणिक महिलाओं की ।

समय के परिवर्तन के साथ ही साथ व्यक्ति का सोच, विचार, चिंतन और जीवनशैली में भी परिवर्तन आना स्वाभाविक है । २१ व्ीं शताब्दी की समीक्षा करें तो हमारा समाज तथा राष्ट्र में जमीन– आसमान का फर्क आ गया है । अर्थात् पहले के समाज और आज के समाज की तुलना करें तो देश में राजनीतिक रुपांतरण में बाजी मारने जैसी अवस्था है । राजनीतिक तौर पर प्रजातंत्र, लोकतंत्र, गणतंत्र और संघीयता में प्रवेश कर चुका है देश । आज देश के सर्वोच्च स्थान पर महिला विराजमान है । आर्थिक दृष्टि से महिला आत्मनिर्भर बनने की ओर अग्रसर हो रही है । उसके बावजूद देश से पितृसत्तात्मक सोच और चिंतन के संकुचित घेराबंदी से बाहर नहीं निकल पा रही है महिला । यद्यपि नये संविधान में महिला को अधिकार संपन्न बनाने के लिए अनेक ऐन–कानून रखे गए हैं उसके बावजूद आज महिला अपनी अस्मिता और जीवन दोनों ही बचाने के लिए संघर्षरत है । अर्थात् सामाजिक दायरा अभी भी संकुचित ही है ।

विकसित देशों में स्त्री–पुरुष में किसी भी प्रकार का विभेद नहीं किया जाता । राज्य के प्रत्येक स्तर पर बराबर की पहुँच है । परिणाम सभी क्षेत्रों में समान सहभागिता होती है । लेकिन हमारे देश में महिला अभी भी समानता की दृष्टि से काफी पिछड़ी हुई हंै । संवैधानिक कानून होने के बावजूद आज प्रत्येक स्तर पर ८० प्रतिशत पुरुषों का ही आधिपत्य है । नेपाल की कुल जनसंख्या का आधा हिस्सा महिला का होने के बावजूद आज भी महिला अपने अस्तित्व रक्षा के लिए पुरुषवर्ग से जूझ रही है । यद्यपि आरक्षण के माध्यम से महिला की पहुँच बढ़ रही है लेकिन वह भी ‘ऊँट के मुख में जीरा’ जैसा । पैतृक संपति में अंश मिलने के बावजूद व्यवहार में लागू न होने से १९ वर्ष से लेकर ५० वर्ष उम्र समूह के ९३ प्रतिशत महिलाओं के पास न तो अपना घर है और न ही जमीन । ४७ प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं । १४ हजार लड़कियों की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है । स्पष्ट है कि समाज में हिंसा–हत्या बढ़ रही हैं लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि इसका शिकार विशेष रूप से महिलाएँ तथा बाल बालिकाएँ ही होती हंै । पुरुषवादी सोच तथा चिन्तन आज समाज में हावी है जबकि महिला और पुरुष एक ही रथ के दो पहिए हैं । एक का कमजोर होने पर रथ कैसे संतुलित होकर आगे बढेÞगा सोचनीय विषय है । आज अपने ही घर में बेटियाँ असुरक्षित हैं, गली–मुहल्ले में चलना, स्कूलों में पढ़ना या संगे–सहेलियों के साथ खेलना–कूदना खतरे से खाली नहीं रह गया है पता नहीं कब किस गिद्ध रूपीपुरुष की काली नजÞर उसपर पड़ जाए । आज समाज में महिला दोयम दर्जे की नागरिक जैसी बन गई हैं । प्रत्येक दिन महिला हिंसा की शिकार बन रही हैं । समाज में घटने वाली प्रत्येक घटना अचानक घटनेवाली दुर्घटना नहीं होती है । उसकी ऐतिहासिकता होती है । समग्र रूप से नारी को एक मां होने के साथ–साथ एक बेटी तथा बहू के रूप में देखने की मानसिकता ही उनके प्रति हिंसा का प्रमुख कारण है । जरूरत इस बात कि है कि महिला को मानव के रूप में देखने की प्रवृति विकसित करनी होगी । महिला को भी सम्मान तथा आदर का हकदार बनाना होगा । शिक्षा तथा स्वास्थ्य के साथ–साथ आत्मनिर्भरता बहुत हद तक महिला को समाज में उस मुकाम तक पहुँचाएगा जिसकी वह वास्तविक हकदार है । केवल यह कहने से कि नारी पूजनीय होती है, से काम चलनेवाला नहीं है क्योंकि नारी देवी भी नहीं है वह तो एक हाड़–मांस की जीती–जागती चेतनशील प्राणी है । नेपाली महिला भी समाज में अपना उचित स्थान तभी पाएगी जब सिर्फ पुरुष अपने पितृ सत्तात्मक मानसिकता तथा सोच परित्याग कर देंगे ।