संस्कृति मनुष्य की अमूल्य निधि है । यह एक ऐसा पर्यावरण है, जिसमें रहकर व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी बनता है और प्रकृति में निहित तत्वों को अपने अनुकूल बनाने की क्षमता अर्जित करता है । प्रसिद्ध विचारक होवेल का मत है — “वह संस्कृति ही है, जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्तियों से, एक समूह को दूसरे समूहों से और एक समाज को दूसरे समाजों से अलग करती है ।” अर्थात् किसी भी
जाति, धर्म, सम्प्रदाय की अपनी एक अलग संस्कृति होती है, वही उसकी पहचान है । हमारे रहनसहन, वेशभूषा, खानपान, रीतिरिवाज, धार्मिक अनुष्ठान, व्यवसाय एवम् परम्परागत प्रथाओं का समन्वय ही समाज में हमारी अपनी पहचान बनाने में सहायक होते हैं ।
संस्कृति की तुलना हम आष्ट्रेलिया के निकट समुद्र में पायी जानेवाली मूँगे की भीमकाय चट्टानों से कर सकते हैं । मूँगे के असंख्य कीडकों अपने छोटे–छोटे घर बनाकर समाप्त हो गये, फिर नये कीडकों ने घर बनाये, और उनका भी अन्त हो गया । इसके बाद उनकी अगली पीढकी ने भी यही किया एवम् यह क्रम लगातार हजारों वर्षों तक चलता रहा । आज उन सब मूँगे के नन्हें–नन्हें घरों ने परस्पर जुडकते हुए विशाल चट्टानों का रूप धारण कर लिया है । संस्कृति का भी इसी प्रकार धीरे–धीरे निर्माण होता है । हमारे पूर्वजों ने विभिन्न स्थानों पर रहते हुए, विशेष प्रकार के सामाजिक वातावरण, संस्थानों, प्रथाओं, व्यवस्थाओं, धर्म, दर्शन, लिपि, भाषा तथा कलाओं का विकास कर अपनी विशिष्ट संस्कृति का निर्माण किया । परन्तु, अफसोस ! जिसके निर्माण में हमारे पूर्वजों का इतना महत्वपूर्ण योगदान रहा, आज वह संस्कृति विलुप्त होने के कगार पर खडी है । हमारी संस्कृति को विनाश की ओर ले जाने के
लिए इस पर बहुआयामी प्रहार हो रहे हैं । इसमें सामाजिक विकृतियाँ आ गयी हैं । हम अपनी संस्कृति की रक्षा कैसे करें, यह आज हमारे लिए एक चुनौती है । हमारे खानपान, रीतिरिवाज, धार्मिक अनुष्ठान एवम् परम्परागत क्रियाकलापों का वह स्वरूप वर्तमान में देखने को नहीं मिल रहा, जो वर्षों से चला आ रहा था । हमारे समाज के युवावर्ग, जो इस संस्कृति के धरोहर हैं, जिनके कन्धों पर इसकी रक्षा की जिम्मेदारी है, वह अपनी परम्पराओं की अपेक्षा पाश्चात्य सभ्यता को अहमियत दे रहे हैं । दूसरे की नकल करते–करते हम इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि असल को ही भूल गये, अपनी स्वयम् की पहचान को ही खो दिये । अतः, आज परिस्थिति ऐसी बन आयी है कि अपनी अस्मिता को बचाये रखने के लिए हमें फिर से जागरित होना पडेगा । इस ओर हमें एक अभियान चलाना होगा, और उसमें सभी के सहयोग की आवश्यकता है ।
संस्कृति हमारी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है । यह किसी खास व्यक्ति के पुरुषार्थ का फल नहीं, अपितु, असंख्य ज्ञात तथा अज्ञात व्यक्तियों के भगीरथ प्रयत्न का परिणाम है । सभी व्यक्ति अपनी सामथ्र्य और योग्यता के अनुसार इसके निर्माण में सहयोग देते हैं, और आनेवाली पीढी का यह दायित्व बनता है कि उसे अक्षुण्ण बनाये रखें । उन्हें जो विरासत में मिला है, उसकी रक्षा करें । उसे अपने जीवन में अपनायें और उन्नति के पथ पर अग्रसर रहें ।
हमारा समाज आज बडी तेजी से बदलाव की ओर बढता चला जा रहा है । भारत के केन्द्रीय मन्त्री श्री रविशंकरजी का कहना है कि कायस्थों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है । ये लोग अच्छे प्रदर्शन के लिए देश, विदेश में जाने जाते हैं एवम् वक्त के साथ बदलाव को भी स्वीकार करते हैं । भारत की राजधानी दिल्ली शहर के पहाडगंज इलाके में स्थित करीब एक सौ वर्ष पुराने श्री चित्रगुप्त–मन्दिर के ट्रष्टी श्री विमल रायजादा के विचार अनुसार कायस्थों में परिस्थिति एवम् समय के हिसाब से स्वयम् को ढालने की बडी खूबी देखी जाती है । ऐसा माना जाता है कि ये लोग किसी भी चीजों को दूसरे की अपेक्षा जल्दी सीखने का हुनर रखते हैं । यही कारण है कि आरक्षण के इस दौर में भी कार्यालयों में कार्य करने के क्षेत्र में प्रतिशत के हिसाब से देखने पर यह सबसे अधिक कायस्थ जाति में देखा जाता है, क्योंकि व्यापार, व्यवसाय हमारी संस्कृति नहीं । परन्तु, वर्तमान समय में इस बदलाव की प्रवृत्ति ने अनेक समस्याओं को जन्म दे दिया है । बदलाव को स्वीकार करने की एक सीमा–रेखा होनी चाहिए, एक दायरा होना चाहिए । आज हम उसी दायरे को तोड रहे हैं, जिसके कारण हमारी संस्कृति की जडें कमजोर हो रही हैं, हमारी संस्कृति में विकृतियाँ आ रही हैं ।
हमारे समाज में दहेज एक विकट समस्या के रूप में उपस्थित है । न जाने, कितनी जिन्दगी इसकी लपटों में जलकर स्वाहा हो गयी हैं। इस भयावह समस्या के निदान के लिए हमारे युवावर्ग द्वाराअन्तर्जातीय विवाह की प्रथा को अपनाया जाने लगा है । हमारी युवा पीढी बिना किसी भेदभाव के इस प्रथा को स्वीकार कर रही है, जिसमें सबसे बडी संख्या कायस्थ, विशेषतः श्रीवास्तव कायस्थ में देखनेको मिल रही है । युवा पीढी केवल वर्तमान के विषय में सोच रही है, इसके दूरगामी परिणाम की उन्हें कोई चिन्ता नहीं । भविष्य में हमारी जनसंख्या पर इसका कितना और कैसा असर पडेगा ? यदि इसी प्रकार की परम्परा चलती रही तो वह दिन दूर नहीं, जब हम समाज में अल्पसंख्यक के रूप में चिह्नित किये जाएँगे । प्रख्यात ज्योतिषी और आध्यात्मिक गुरु श्री पवन सिन्हाजी का कहना है कि एकता के मामले में कायस्थों के लिए यह एक संघर्ष का दौर है, और अगर अब भी कायस्थ समाज एक नहीं हुआ, तो उनकी आगे की पीढी को नुकसान भुगतना पड सकता है ।
संस्कृति के विलुप्त होने का सबसे बडा कारण हमारे बच्चों में संस्कार की कमी होना है, जिसके जिम्मेदार हम हैं । आज हम एक अभिभावक का कत्र्तव्य नहीं निभा रहे हैं । समाज में संयुक्त–परिवार की प्रथा करीब–करीब समाप्त हो गयी है। आज एकल–परिवार में माता, पिता और अपने बच्चे रहते हैं । बहुधा देखा जाता है कि पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रायः माता–पिता दोनों घर से बाहर कार्य करते हैं । अतः अपने बच्चों के साथ जितना समय बिताना चाहिए, उतना समय उनको नहीं दे पाते हैं । दूसरी ओर, घर में बुजुर्गों का अभाव है — नाना–नानी, दादा–दादी, ताऊजी–बडी माँ, चाचा–चाची साथ–साथ नहीं रहते हैं । पारिवारिक लोगों से साल में एक या दो बार, वह भी कुछ दिनों के लिए, मिलना हो पाता है । आखिर, बच्चों के साथ समय कौन बिताए ? उन्हें अपनी रीतिरिवाजों और परम्पराओं की बातें कौन बताए ? आज बच्चों के पास सिर्फ दो ही विकल्प हैं — या तो वे अपने मित्रों के साथ समय व्यतीत करें, अथवा टेलिभिजन, इण्टरनेट, फेसबूक, ह्वाट्सएप इत्यादि विद्युतीय यन्त्रों के सहारे समय का उपयोग करें । ऐसी परिस्थिति में वे एकांगी बन रहे हैं । इसी प्रकार, शहरी जीवन ने हमें, एक ओर, वैज्ञानिक आविष्कारों से प्राप्त विभिन्न प्रकार की आधुनिक सुख–सुविधाओं के साधनों का उपयोग करने का अवसर उपलब्ध करा रहा है, तो, दूसरी ओर, हम यह नहीं जानते कि हमारा पडोसी कैसे लोग हैं ? ऐसी अवस्था की शुरुआत परिवार में बचपन से ही हो रही है, जिसका गहरा प्रभाव आनेवाली पीढी पर
पड रहा है । अभिभावक के रूप में हम इतने कमजोर हो गये हैं कि हम अपने बच्चों को बोल नहीं पाते हैं कि उनके लिए क्या उचित है और क्या अनुचित है । जिस वृक्ष की जड ही इतनी कमजोर हो जाए, तो उस वृक्ष से उत्तम फल की आशा कैसे की जा सकती है ? जिन बच्चों ने उगता हुआ सूरज, डूबता हुआ चाँद, चिडियों का चहचहाना, झरनों का कलकल और नदियों की प्रवाहित धारा के विषय में नहीं समझा, प्रकृति से जिनका कभी जुडाव नहीं हुआ, जिन्हें कभी किसी ने समझाया नहीं कि नदियाँ हमारी संस्कृति हैं, सूरज और चाँद हमारे देवता हैं, पीपल वृक्ष में जल डालना चाहिए, आँगन में तुलसी झार के पास दीपक जलाना चाहिए, भला ऐसे बच्चों की मासूम पीढी से हम कैसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे हमारी संस्कृति की रक्षा करेंगे ? वस्तुतः, यह उनका दोष नहीं है । यह दोष है आज के वातावरण का, बदलते परिवेश का, विकसित परिस्थितियों का । आज के समाज की धरती से जो फसल उगेगा, वह ऐसा ही होगा, क्योंकि धरती शुष्क हो गयी है । इस ओर सकारात्मक परिवर्तन के लिए वातावरण बदलना होगा, अच्छाई, ईमानदारी, त्याग, तपस्या इत्यादिको बढावा देना होगा । केवल पुस्तकीय ज्ञान और विश्वविद्यालयीय परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर लेने से जीवन में सफलता और सुख प्राप्त नहीं हो सकते । आज हमारी नैतिकता पतनोन्मुख हो रही है । हमें चरित्र–सद्निर्माण की प्रक्रिया को अपनानी होगी । इसके लिए हमें कठिन परिश्रम एवम् जागरूकता की बडी आवश्यकता है, क्योंकि जिस आधार पर सच्चरित्र का निर्माण किया जा सकता है, वह आधार ही हमारे समाज से लुप्त होता जा रहा है ।आज समाज में यही देखा जाता है कि येनकेन प्रकार से धन अर्जन एवम् पद और प्रतिष्ठा प्राप्त किया जाए, बस इसी ओर लोगों की प्रवृत्ति पायी जाती है ।
एक उदाहरण देखिए — प्रसिद्ध चिकित्सक डा. बी.एन. सिन्हा ने अपने सात–आठ वर्ष के पौत्र से पूछा कि तुम पढ–लिख कर क्या बनोगे ? इस पर उस बच्चे ने बिना किसी संकोच से कह डाला — जूनियर इन्जीनियर । जूनियर इन्जीनियर बनेंगे, बहुत बडा मकान बनवाएँगे, माँ को उसमें रखेंगे । यह सुन कर डाक्टर साहब अवाक् हो गये । उन्होंने कहा कि जूनियर इन्जीनियर बनना भी कोई लक्ष्य होता है ? थोडी देर बाद में उनकी समझ में बात आयी कि उनके घर के सामने में एक जूनियर इन्जीनियर का आलीशान महल बन रहा था । अब इससे यह बात समझ में आती है कि बच्चों के मन पर रुपये का कैसा असर पडता है । इस मासूम के मानसिक स्तर का कारण एकमात्र परिवेश ही है । जो कुछ हमारे आसपास हो रहा होता है, हम सभी उसके अनुरूप बनने लगते हैं ।
आज हमारे घर की बेटी–बहुओं के पहनावे में एवम् रहनसहन में बहुत परिवर्तन दिखायी दे रहे हैं । जब कि, वास्तविकता यही है कि नारी ही संस्कृति की प्रधान रक्षिका होती हैं । आज रक्षक ही भक्षक बनता जा रहा है । आज की पीढी की युवतियाँ माँग में सिन्दूर नहीं लगातीं, हाथों में चूडियाँ नहीं पहनती, पायल–बिछिया तो दीखते भी नहीं, साडी पहनना एक जटिल प्रक्रिया का परिचायक हो गया
है । आधे, तिरछे, कटे, फटे कपडे पहन कर पार्टियों में नृत्य कर वे स्वयम् को पाश्चात्य सभ्यता के अनुकूल तो अवश्य बना रही हैं, परन्तु इनके दूरगामी परिणामों की ओर उनका थोडा भी ध्यान नहीं । उन्हें यह ज्ञात नहीं कि जिन पाश्चात्य सभ्यता में लिप्त समाज के समकक्ष दीखने के लिए वे अपनी संस्कृति का त्याग कर रही हैं, उस पाश्चात्य सभ्यता का स्थान तो हम से निचले पायदान पर है । वहाँ परिवार नाम की कोई व्यवस्था नहीं होती । दैहिक सम्बन्ध वहाँ एक तौलिया की तरह समझा जाता है, प्रयोग किया और फेंक दिया । हम उन लोगों की नकल कर रहे हैं, जो हम से केवल धन के मामले में ऊँचे हैं । धन के प्रति आकर्षण–भाव ने हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति से विमुख होने की ओर निर्दिष्ट किया है । आज का समाज के समक्ष समृद्धि का उदाहरण के रूप में अमेरिका सामने दीखता है, और हर व्यक्ति की चाहत होती है कि जितना अमेरिकनों के पास धन है, उतना हमारे पास भी हो जाए । जो सुविधा वहाँ उपलब्ध हैं, वह हमें यहाँ भी मिल जाएँ । यही वह मानसिकता है, जिसमें हमारी संस्कृति के विनाश का मूल कारण छुपा हुआ है ।
आज का युवावर्ग यह भूल रहा है कि संस्कृति का मतलब प्राप्त किये हुए ज्ञान और व्यवहारों की सम्पूर्णता होता है । यह एक व्यवस्था होती है, जिसमें हम जीवन के प्रतिमानों, व्यवहार के तरीकों, अनेकानेक भौतिक एवम् अभौतिक प्रतीकों, परम्पराओं, विचारों, सामाजिक मूल्यों, मानवीय क्रियाओं और आविष्कारों को शामिल करते हैं । मानव–विज्ञान की भाषा में संस्कृति के अमूत्र्त स्वरूपों को आध्यात्मिक तथा मूत्र्त स्वरूपों को भौतिक कह कर व्याख्या की गयी है । इस प्रकार, आध्यात्मिक और भौतिक, इन दोनों प्रकार से संयुक्त सांस्कृतिक विकास का परिष्कार प्राप्त करने से मनुष्य सुसंस्कृत बनता है और ऐसे मनुष्यों से सभ्य समाज का निर्माण होता है।
हमारे युवावर्ग को यह ज्ञात होना चाहिए कि हमारे अग्रज कौन–कौन थे ? स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द, मुंशी प्रेमचन्द, डा. राजेन्द्र प्रसाद, लालबहादुर शास्त्री, जयप्रकाश नारायण, डा. ब्रजकिशोर वर्मा मणिपद्म, महाकवि लालदास इत्यादि अगणित महान् विभूतियाँ हैं, जिनके जीवन में धन का कोई अहमियत नहीं था । धन के अभाव में उन्होंने अपनी संस्कृति का त्याग नहीं किया
था, अपनी अस्मिता को नहीं खोया था । आज इतिहास में अपनी संस्कृति के रक्षक के रूप में उनके नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं । कहते हैं कि स्वामी विवेकानन्द अमेरिका प्रवास के समय भोजनकाल में चम्मच–काँटे के बजाय हाथ से भोजन करने लगे तो वहाँ के अन्य लोग उन्हें आश्चर्य से देखने लगे । तब उन्होंने बताया कि भोजन का हाथ की ऊँगलियों से स्पर्श होने पर जो यौगिक क्रिया होती है, उससे अन्न सुपच हो जाता है तथा इससे भोजन करने में जो आनन्द मिलता है, वह चम्मच–काँटे से अन्नको मुँह में डालने में कदापि नहीं मिल सकता । यह सुनकर वहाँ उपस्थित लोग अवाक् रह गये थे । वास्तव में, स्वामीजी ने अपनी संस्कृति का प्रचार किया था ।
अन्त में, कहना यह है कि परिवर्तन होना चाहिए, बदलाव आनी चाहिए । इससे विकास होता है । इसे रोका भी नहीं जा सकता, क्योंकि यह गतिशीलता शाश्वत होती है । गति ही जीवन है, विकास ही उन्नति है । परन्तु, उसकी एक परिसीमा होनी चाहिए, एक परिधि निर्धारित रहनी चाहिए । उस परिधि के अन्तर्गत रह कर भी हम भौतिक तथा आध्यात्मिक रूप से अपनी सांस्कृतिक उन्नति कर सकते हैं । हमारी जडें कमजोर नहीं होनी चाहिए । हम दूसरों की नकल करने के बजाय स्वयम् इतने सबल बनें कि दूसरे ही हमारा अनुसरण करें । हमें औरों के लिए आदर्श स्थापित करना चाहिए । आनेवाली पीढी हमें याद रखे और अनुसरण करे । अपनी सभ्यता और संस्कृति का आदर करे ।