देवलदेवी : एकटा पृथक सन्दर्भ

चन्द्र किशोर मल्लिक

विराटनगर १३

नेपालक मध्यकालक इतिहासमें देवलदेवी के चर्चा एकटा प्रभावशाली एवं कुशल राजकीय महिलाके रुप में भेल छैक । ओ मिथिला के अन्तिम कर्णाटवंशीय नरेश हरसिंहदेवक पत्नी÷ठकुरानी एवं तत्कालीन काठमाण्डौ उपत्यका (नेपाल–दूनक) शासकीय केन्द्र भक्तपुरक वैश–ठकुरी शासक जयतुङ्ग मल्लदेवक सुपुत्री÷जयरुद्र मल्लदेवक बहिन छलखिन्ह । मिथिलाके प्रथम कर्णाटवंशीय शासक नान्यदेवके समय सँ अन्तिम शासक हरसिंहदेव तक पडोसी राज्य सभ सँ सङ्घर्षक उल्लेख इतिहास में कयल गेल छैक । विशेषतः काठमाण्डौ उपत्यका तथा निकटतस्थ नेपालक पूर्वी पहाडी भूभाग में कर्णाटवंशीय प्रभाव रहैक । नेपालक इतिहासमें कर्णाटवंशीय नेतृत्वक तिरहुतीया÷मैथिल सेनाके ‘डोय’ नाम सँ उल्लेख कयल गेल छैक । डोय सेना भक्तपुर केन्द्रके विरुद्ध अन्तर्गतके सामन्त सभक पक्षकें सहयोगार्थ अनेको बेर काठमाण्डौ उपत्यका में आक्रमण कयने रहैक । अप्पन वर्चस्व प्रभाव छोडि, धन–सम्पत्ति, लऽ कऽ पूनः वापस भऽ जाइत छलै । प्रत्यक्ष रुपें शासन में संलग्नता इतिहासमें उल्लेख नहिं छैक । तत्कालीन भक्तपुरक शासक जयतुङ्ग मल्लदेव एहि सामरिक विषयवस्तुके बुझलखिन्ह आ महाराज हरसिंहदेवक सन्धी–विग्रह मन्त्री चण्डेश्वर ठक्कुरसङ्ग सन्धी कय हुनक सहयोग सँ विद्रोही सामन्त सभ के दमन कयलखिन्ह आ प्रभावशाली शासकके रुपमें प्रस्तुत भेलखिन्ह । सन्धी के शर्त अनुसार अप्पन कान्या देवलदेवीके विवाह हरसिंहदेव सँ करा कऽ कर्णाटवंश सँ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कयलखिन्ह । हरसिंहदेवक जन्म १२९४ ईं में भेल रहन्हि । पिता शक्तिसिंहदेवक निधन पश्चात् सन् १३०७ ईं में राजगद्दी पर बैसवाक समय में ई अल्पवयष्क छलाह । हिनक सन्धी–विग्रह आऽ प्रभावशाली महामन्त्री चण्डेश्वर ठक्कुरक नेतृत्वमें काठमाण्डौ–उपत्यका विजय अभियानक समय ई २० वर्षक भऽ गेल छलाह । ओही समय देवलदेवीके आयु १० वर्ष रहैन्ह । इतिहासमें विवाहक समय आ स्थान स्पष्ट नै छैक । लेकिन जयतुङ्ग मल्लक निधन पश्चात् हुनक पुत्र जयरुद्र मल्लदेव द्वारा सन्धीके शर्त अनुसार विवाह सम्पत्र कराओल गेल सम्भावना व्यक्त भेल छैक । सन् १३२४ ई में सुल्तान गयासुद्दिन तुगलकद्वारा बङ्गाल विजय सँ वापस दिल्ली प्रस्थान कयलाक समय तिरहुतक राजधानी सिम्रौनगढ पर आक्रमण कय कऽ ध्वस्त कऽ देलकयक । हरसिंहदेव, रानी देवलदेवी, पुत्र कुमार जगतसिंहदेव, अन्य परिवार, महामन्त्री चण्डेश्वर ठक्कुर, अन्य मन्त्रीगण, सैनिक, सेवक सभके साथ उत्तर पहाड तरफ पलायन भऽ गेलाह, लक्ष्य छलैन्ह सासुर भक्तपुर । सन् १३२६ ई में रास्ता में नेपालक पहाडी क्षेत्र वर्तमान सिन्धुली जिल्लाक तिनपाटन नामक स्थान पर हिनक मृत्यु भऽ गेलैन्ह, रानी देवलदेवी अपन पुत्रक साथ भक्तपुर पहुँचलखिन्ह । भक्तपुरक शासक हिनक भ्राता जयरुद्र मल्लदेव तथा हिनक माता राजमाता पदुमल देवीद्वारा सम्मानपूर्वक दरबारमें शरण प्रदान कयल गेलैक ।

किछु महिना पश्चात् जयरुद्र मल्लदेवक से हो मृत्यु भऽ गेलैक । हुनक पुरुष सन्तान नहिं छलैन्ह, एक मात्र पुत्री नायकदेवी रहथिन्ह, जे राज्यके उत्तराधिकारिणी भेलखिन्ह । नायकदेवीके संरक्षिकाके भूमिकामें देवलदेवी अप्पन माता पदुमलदेवीके सङ्ग कुशलतापूर्वक शासन कार्य सञ्चालन करय लगलखिन्ह । नायकदेवीके विवाहके लेल पितामही पदुमलदेवी तथा फुपु (पिसी) देवलदेवीके नेतृत्व में वर तलाश होमय लागल । स्थानीय सामन्त राजकर्मचारीक सन्तान युवा वर्ग सभ नायकदेवी सँ विवाह करय लेल उत्सुक रहथिन्ह । परन्तु राज्य उत्तराधिकारिणी भेला कारणे हुनका विवाह पश्चात् अन्यत्र पठौनाई उपयुक्त नहिं देखि कऽ बाहर सँ वर मँगा विवाह करयवाक निर्णय भेलैक । अहि प्रयोजनक लेल काशी राजवंशक कुमार हरिश्चन्द्र के डोला खोजि (भक्तपुरमें वर मँगा कऽ) विवाह कराओल गेलैक । कालान्तरमें हरिश्चन्द्र के विष सेवन÷प्रयोगद्वारा मृत्यु भऽ गेलैक, आ नायकदेवी विधवा भऽ गेलखिन्ह । देवलदेवी अप्पन नियन्त्रण बाहर केन्द्रक शासन सत्ता नहिं जायदेवाक उद्देश्य सँ तात्कालीन राजकर्मचारी– भारदार एवं किछु सामन्त सभके प्रभाव में लऽ कऽ अप्पन पुत्र कुमार जगतसिंहदेव सँ नायकदेवीके पूनर्विवाह करा देलखिन्ह । एहि तरहें हरसिंहदेवक पुत्र जगतसिंहदेवक विवाह सहोदर मातृकूल में एकटा विधवासङ्ग भेलैक । जगतसिंहदेव एवं नायकदेवी सँ सन् १३४६ ई में एक बालिका राजल्लदेवीके जन्म भेलैक । जन्म सँ १० दिन पश्चात् नायकदेवी के मृत्यु भऽ गेलैक । एक बेर फेर काठमाण्डौ उपत्यकाके केन्द्र भक्तपुर में उत्तराधिकारक सङ्कट आवि गेलैक । पत्नीके कारण सँ राज्य उत्तराधिकारी जगतसिंह देवके विरोधी सभ कैद कऽ देलकैक, तेकर पश्चात् हुनक कि भेलैन्ह, इतिहास मौन छैक । लेकिन देवलदेवी कुशलतापूर्वक ई सङ्कट सँ पार भेलखिन्ह । तथा अप्पन पौत्री राजल्लदेवीके संरक्षिका के रुपमें पालन–पोषण एवं.शासन सञ्चालन कार्य करैत रहलखिन्ह । किछु समय पश्चात् राजल्लदेवी के विवाहक चर्चा शुरु भेलैक । स्थानीय राजकूल सभक युवा तथा सामन्त सन्तान सभ वैवाहिक सम्बन्ध बना कऽ राज्य सञ्चालन में सहभागी बनय लेल उत्सुक रहथिन्ह । लेकिन देवलदेवी अप्पन नियन्त्रण बाहर शासन सत्ता जायदेवऽ नहिं चाहैत छलखिन्ह । अतः पूनः बाहर सँ डोला (वर) मँगा कऽ विवाह करयवाक निर्णय भेलैक । तराई (मिथिला प्रदेश) सँ कर्णाटवंशी युवक स्थितीदेव के मँगा विवाह सम्पत्र कराओल गेलैक । सन् १३५४ ईं (वि.सं. १४११) में राजल्लदेवी के विवाह स्थितीदेव सङ्ग भेलैक । कालान्तर में स्थितीदेव राज्य उत्तराधिकारिणी पत्नी राजल्लदेवी के कारण सत्ता में भागीदार भऽ गेलाह । ई स्थितीदेव भक्तपुर के शासक जयरुद्र मल्लदेवक दौहित्री जामाता÷जमाय तथा हरसिंहदेवक पौत्री जामाता÷जमाय भेलखिन्ह । शासन सत्ता नियन्त्रण में अयलाके बाद ई दुनु कूलक पद नामधारण कयलखिन्ह आ राजा जयस्थिती मल्लदेव भेलाह । हिनक सन्तान सभ कालान्तर में काठमाण्डौ उपत्यका के विभित्र स्थानक राजा भेलखिन्ह जे अपना के कर्णाटवंशीय कहाबय में गौरव महशुश करयत छलखिन्ह । हरसिंहदेव हिन्दु धर्मप्रेमी राजा रहथिन्ह । हिनक दरवार में विभित्र विषयक विद्वान सभ सम्मानपूर्वक रहथिन्ह ।

हिनक एक दरवारी विद्वान पं. रामदत्त रचित वाजसनेयी÷विवाह पद्धती अखनोधरि मिथिला में प्रयोग एवं प्रचलित छैक । ई राजा धर्मशाष्त्र, स्मृतिपुराणक आधार पर सामाजिक व्यवस्था कायम करय चाहैत छलखिन्ह । एही प्रयोजनक लेल पञ्जी प्रबन्ध करयवाक निर्णय के साथ आदेश देने रहथिन्ह । वर्णशङ्कर रोकय लेल, रक्तशुद्धता के लेल तथा धर्मशाष्त्र, स्मृतिपुराण अनुसार निकटतम् वंश आऽ रक्त सम्बन्ध में अनाधिकार विवाह वर्जित करय के उद्देश्य सँ पञ्जी प्रबन्धक व्यवस्था हरसिंहदेवद्वारा भेल रहैक । ओ एकर पूर्ण कार्यान्वयन अप्पन जीवनकाल में नहिं देख सकलाह । दूर्भाग्यवश हिनक मृत्यु पश्चात् हिनक पुत्र कुमार जगतसिंहदेवक विवाह अप्पन सहोदर मातृकूल रक्त सम्बन्ध में भऽ गेलैक । इतिहासकार लिखैत छथिन्ह जे मिथिलाके कर्णाटवंशीय प्रथम शासक नान्यदेव दक्षिण भारतके चालुक्यवंशी शासक सोमेश्वर के सेनापति रहथिन्ह, आऽ उत्तर भारत के विजय अभियान पश्चात् मिथिला में अप्पन स्वतन्त्र राज्य स्थापना कऽ शासक भेलखिन्ह । दक्षिण भारतीय नान्यदेव तथा हुनक वंशज हरसिंहदेव तक कर्णाटवंशीय शासक के साथ दक्षिण भारतीय समाज , भाषा, संस्कृति, कर्मचारी सभ से हो मिथिला में आयल होयतैक । लेकिन ईतिहास अध्ययन पश्चात् दक्षिण भारतीय भाषा, संस्कृति सँ वेसी मैथिल भाषा संस्कृति के प्रभाव हुनका सभ पर भेल देखल जाऽ रहल छैक । लेकिन एक बात स्पष्ट छैक जे कर्णाटवंशीय शासक सभ सनातन हिन्दु धर्मावलम्बी छलाह एवं धर्मशाष्त्र, स्मृतिपुराण अनुसार शासन व्यवस्था चलावय÷राखय चाहैत छलाह । मिथिला में दक्षिण भारतीय सांस्कृतिक प्रभाव जे भेल होय, लेकिन नेपाल काठमाण्डौ उपत्यका में दक्षिण भारतीय सांस्कृतिक प्रभाव अत्यधिक भेल रहैक से अखनोधरि देखल जाऽ सकैत अछि । हरसिंहदेव सिम्रौनगढ सँ पलायन के समय अप्पन इष्टदेवी तुलजा भवानी के सेहो सङ्गे लऽ गेलखिन्ह । जे काठमाण्डौ उपत्यका में अयला पश्चात् तलेजु भगवती के रुप में अत्यन्त श्रद्धा एवं आस्था के साथ पूज्य छथिन्ह । दोसर महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रचलन छैक, नेवार समुदाय में बेल–विवाह÷इही । कहल जायत छैक जे तात्कालीन दक्षिण भारतीय प्रभाव के कारण बेल विवाह प्रचलन में छैक । हरसिंहदेव–देवलदेवी के पौत्री जामाता जयस्थिती मल्लदेव में सेहो हरसिंहदेव जेकाँ धार्मिक, सांस्कृतिक आस्था के प्रभाव रहैन्ह । ओहो शासन पद्धती में धर्मशाष्त्र, स्मृतिपुराणक आधार पर नियम बना कऽ शासन चलाबय चाहैत छलाह । जयस्थिती मल्लके समय पुर्वही सँ काठमाण्डौ उपत्यका में उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम चारो दिशा सँ आयल लोक सभ रहैक । लिच्छवी, गोपाल, बज्जी, खस, किराँत, कर्णाटवंशी डोय – आर्य, द्रविड, मङ्गोल सभ के मिश्रित बसोवास छलैक । प्रत्येक जाति वर्गके अप्पन अप्पन सामाजिक–सांस्कृतिक अवस्था जे एक दोसर सँ भित्र छलैक, मेल नहिं खाइत रहैक । ओही परिस्थिती में मैथिल एवं भट्ट ब्राह्मण के सहयोग सँ प्रत्येक जाति के सामाजिक स्थान, पद एवं कर्तव्य निर्धारण कय कऽ तात्कालीन समय में ८२ जाति के जातीय माला बनौलन्हि । ताहिना कर्म एवं दण्डसजाय शासन सञ्चालनक लेल नारदस्मृति पर आधारित मानव (धर्म) न्यायशाष्त्र – न्यायविकासिनी बनौलन्हि । न्याय–कानूनविद सभके कथन छैक जे सन् १३८० में जारी न्यायविकासिनी कानून – विश्वके लिपीबद्ध सर्वप्रथम कानून छियैक । न्यायविकासिनी पुस्तकके ऐतिहासिकता विवरण सम्बन्धके पृष्ठमें लिखल छैक जे ओही समयमें न्यायके बारेमें चर्चा भेल प्रत्येक स्मृति ग्रन्थके मानव न्यायशाष्त्र कहल जाइत रहैक । जेकर प्रमाण नेपालक वीर पुस्तकालय (हाल राष्ट्रिय अभिलेखालय) में सुरक्षित मनुस्मृति – मैथिली टिका सहितक ताडपत्र एवं माइक्रोफिल्म सँ प्रमाणित होइत छैक । अतः नारदीय संहिताके से हो मानव न्यायशाष्त्र नाम स्वभाविक छैक । जयस्थिती मल्ल तात्कालीन रुपमें विभाजित सामाजिक संरचना के एकिकृत कऽ एकटा समाज ‘नेवार समुदाय’ में रुपान्तरित करा देलखिन्ह, जे संरचना आ प्रभाव अखन पर्यन्त देखल जाऽ सकैत अछि । सन् १३६६ ई. सँ १३९५ ई. धरी नेपालमें राजल्लदेवी–जयस्थिती मल्लदेवक शासन रहलैक । कहल जाइत छैक, इहि–बेल विवाहक प्रथा नेवार समुदायमें दक्षिण भारतीय कर्णाटवंशी डोयके आगमनसंगे शुरुवात् भऽ गेल छलैक, लेकिन जयस्थिती मल्लद्वारा सामाजिक सुधारक पश्चात् काठमाण्डौ उपत्यकाके एकिकृत नेवार समुदायमें एकर प्रचलन व्यापक भऽ गेलैक । सनातन हिन्दु धार्मिक आधार कन्यादानक अवधारणा अनुरुप भगवान विष्णुके प्रतिकके रुपमें कच्चा बेल (प्राकृतिक फल) सँ रजस्वला पूर्व अर्थात् ८ सँ १० वर्षक कान्याके विधिवत् विवाह करा देल जाइत छैक । यावत् धरी बेल नहिं फुटैत छैक या नष्ट नहिं भऽ जाइत छैक, तावत् धरी बेल विवाह कराओल गेल कान्या विधवा नहिं होइत छैक । वयष्क भेला पर कान्या–वर (स्त्री–पुरुष) के बीच सामाजिक, जैविक वैधानिक विवाह होमयत छैक, लेकिन ओही कार्यमें धार्मिक कन्यादानक कार्य नहीं होमयत छैक । मात्र दुनु पक्षकबीच सुपाडी आदान–प्रदान, सामाजिक स्वीकृती, समारोह एवं भोज होमयत छैक । कच्चा बेल कहियो नहिं फुटैत छैक, ओकरा बहुत जतन साथ सुरक्षित राखिक पत्नीद्वारा नित्य पूजन करबाक परम्परा छैक । जैविक पतिके मृत्यु पश्चात् या वृद्धावस्थामें बेलके नदी में प्रवाह– बहा देलाक बाद स्त्री चाहै त वैधव्य जीवन वितेवाक स्वतन्त्रता छैक । धार्मिक आधारपर प्रचलित ई प्रथा के परिणाम स्वरुप कन्यादान–बालविवाह नहिं भऽ सकलाक कारणे दोषी माता–पिता बेल विवाह पश्चात् अपनाके दोष÷पाप मुक्त मानैत छथि । भगवान विष्णुके प्रतिक बेल सँ विवाहके बाद सगोत्री विवाहक दोष समाप्त भऽ जाइत छैक । कियैक त धार्मिक अनुष्ठानद्वारा ओही कान्याक पूनर्विवाह नहिं होमयत छैक । बेल विवाह–इही भेल कान्या नवरात्र या अन्य धार्मिक कार्यमें कुमारीके रुपमें पूजन के लेल वर्जित÷निषेधित भऽ जाइत छैक । इहि–बेल विवाह भेल कान्याके सामाजिक–जैविक पति कोनो कारणवश अल्प समयमें मृत्यु भऽ गेला पश्चातो ओ विधवा नहिं कहवैत छैक, तथा पूनः सामाजिक–जैविक पति विवाह कऽ सकैत छैक । सामाजिक–जैविक पति सँ सम्बन्ध विच्छेद करवाक प्रयोजन पर तकियाके निचा सुपाडी राखी कऽ वापस कऽ देला पर सम्बन्ध विच्छेद मानल जाइत छैक । ज्योतिषीद्वारा कान्याके कुण्डलीमें माङ्गलिक तथा वैवाहिक दोष देखेवाक कोनो प्रभाव नहिं रहि जाइत छैक । लेकिन आधुनिक कालमें कानूनद्वारा निर्धारित नियम अनुसार पति–पत्नी वीचक सम्बन्ध, उत्तराधिकार, सन्तान इत्यादि सबहक धार्मिक–सांस्कृतिक–सामाजिक कृत्य व्यवहारके साथ–साथे वैधानिक स्वीकृति एवं अभिलेख प्रमाण से हो आवश्यक तथा प्रचलन भऽ गेल छैक ।नेवार समुदायमें पञ्जी प्रबन्ध नहिं छैक, परन्तु हिन्दुधर्मशाष्त्र, स्मृति पुराण अनुसार पितृकुल एवं मातृकुल में विवाहक निषेधित व्यवस्थाके पूर्ण रुपेण पालना करैत छैक । नेवार समुदायक पुरोहित एवं स्थानीय विराटनगर स्थित बगलामुखी देवी मन्दिरके पूजारी श्री शैलेन्द्र राजोपाध्याय (रिमाल) सँ अन्तरक्रियामें ज्ञात भेल जे नेवार समुदाय अन्तर्गतके बौद्धमार्गी के पूजा पद्धती बाहेक अन्य हिन्दुमार्गी नेवार समुदायमें राजोपाध्याय ब्राह्मणके अनेक गोत्र छैन्ह आ ओ प्रयोग करैत छैथ । मध्यकालीन काठमाण्डौ उपत्यकाके शासक मल्ल राजाके सन्तान सभ माण्डव गोत्र प्रयोग करैत छैथ । नेवार समुदायके अन्य सभ छहथरिया पाँचथरिया, निम्न जाती, ज्यापू (किसान) तथा दलित (हरिजन) सब कर्मकाण्डमें एकमात्र गोत्र काश्यप गोत्र प्रयोग करैत छैथ । काठमाण्डौके मध्यकालक इतिहासमें राजकूलक महिला सभक नाम वीरम्मादेवी पदुमलदेवी, देवलदेवी, नायकदेवी, राजल्लदेवी उल्लेख छैक । (किछु इतिहासविद सभ अपन अनुकूल नामके संशोधन कऽ पद्मलक्ष्मी, देवलक्ष्मी, राजलक्ष्मी बना देने छथिन्ह ।) इतिहासकार कहैत छथिन्ह जे नामक गठन, चयन आऽ उच्चारणमें दक्षिण भारतीय प्रभाव स्पष्ट देखल जाऽ सकैत छैक । देवलदेवीके मृत्यु वि.सं. १४२३ (ई.सं. १३६७) बैशाख महिनामें ६६ वर्ष ८ महिनाके आयुमें भेल इतिहासकार लिखैत छथिन्ह । नेपालक विद्वान व्यक्तित्व हुतराम वैद्य देवलदेवीके राष्ट्रिय विभूति प्रदान करवाक माग कयने छलाह । हरसिंहदेवके आदेश सँ निर्मित पञ्जी प्रबन्धक विस्तृत अध्ययन एवं सर्वेक्षण मेजर विनोद विहारी वर्मा कयने रहथिन्ह । हुनकद्वारा लिखल पुस्तक करण कायस्थक पाञ्जिक सर्वेक्षण (वर्ष १९७३ ईं., प्रकाशक क्रान्ति विहारी वर्मा, मधेपुर, मधुवनी) के पृष्ठ ३४ पर लिखने छथिन्ह जे “मैथिल करण कायस्थक पाञ्जिमें हमरा गोत्रक उल्लेख कतहु नहिं भेटल । पञ्जिकार सभ में एहि विषय लऽ कऽ मत विभित्रता छैन्हि । सम्भवतः पञ्जी प्रबन्धमें से हो तात्कालीन दक्षिण भारतीय समाज, संस्कृति एवं परम्पराक प्रभाव छैक । अन्तमें, चेतना, शिक्षा एवं समृद्धिके विकास संगे कायस्थ समुदायके व्यवहार–संस्कार सभमें परिवर्तन आवि रहल छैक । अन्तरजातीय विवाह तथा अन्तर उप–जातीय विवाहक प्रचलन बढी गेल छैक । प्रेम विवाह एवं समारोहपूर्वक विवाह दुनु प्रचलनमें छैक । दुनुके सामाजिक स्वीकृति प्रदान भऽ रहल छैक । लेकिन कायस्थमें स्ववंश÷स्वमूल विवाह प्रचलनमें नहिं छलैक । प्रेम विवाहक एकाध घटना भेलोक सन्ता समाज ओकरा स्वीकृति नहिं प्रदान कयने रहैक । २२ अप्रिल, २०१६ के लग्नके दिन दरभङ्गामें एकटा महत्वपूर्ण धार्मिक–सांस्कृतिक घटना भेलैक । ओहि दिन समारोहपूर्वक धार्मिक अनुष्ठानद्वारा स्वमूल÷स्ववंश विवाह सम्पत्र भेलैक । जाहि में कान्या–वर पक्षके पिता– माता, अभिभावक, परिवार, कुटुम्ब एवं इष्टमित्र सबहक सहभागिता रहलैक । ओही सँ पहिने ‘भगवानक ईच्छा’ शब्द प्रयोगके साथ सिध्यान्त सम्पत्र भेल रहैक । सुगम विवाह पद्धती अनुसार ब्राह्मण–पुरोहितद्वारा कान्यादान–सिन्दुरदान कराओल गलैक । कान्याके घरमें चतुर्थी तत्पश्चात् द्विरागमन से हो भेलैक । अर्थात् संलग्न एवं उपस्थित समाजक महानुभावद्वारा स्वीकृति सहमती प्रदान कयल गेलैक ।

ब्राह्मण–पुरोहित वर्गद्वारा सगोत्री विवाहक आक्षेप लागि रहल अवस्थामें स्वमूल÷स्ववंश विवाह विचारणीय छैक । प्रचलित पञ्जी प्रावधानुसार स्वमूल÷स्ववंश विवाह अनाधिकार छैक । लेकिन समारोहपूर्वक सु–सम्पत्र एवं समाजद्वारा स्वीकृत विवाह पञ्जी प्रबन्धपर से हो प्रहार छैक । परिणाम सुखद अथवा घातक जे होयतैक से कर्ण कायस्थ समाजक भविष्यमें दिशा एवं दशा निर्धारण करतैक । ओना जाहि समुदायमें पञ्जी प्रबन्ध नहिं छैक, विवाह ओतहु होमयत छैक । सन्दर्भ ग्रन्थ ः– १. मिथिलाक इतिहास – डा. उपेन्द्र ठाकुर, मैथिली अकादमी पटना । २. सिमरौनगढको इतिहास – मोहन प्रसाद खनाल, नेपाल र एसियाली अनुसन्धान केन्द्र त्रिभूवन विश्वविद्यालय, काठमाण्डौ । ३. रोलम्बा – हरेराम जोशी, ललितपुर भाग १, नं. १ । ४. नेपालको ऐतिहासिक भूगोल – डा. जगदिशचन्द्र रेग्मी, पाठ्यक्रम विकास केन्द्र, त्रिभूवन विश्वविद्यालय, काठमाण्डौ । ५. त्रिपुर र युथुनिमम् राजकुल (भक्तपुर राजदरवारको विकासक्रम) – डा. पुरुषोत्तम लोचन श्रेष्ठ, भक्तपुर नगरपालिका, भक्तपुर । ६. दि नेवार्स – गोपाल सिंह नेपाली, हिमालयन बुक सेलर्स, काठमाण्डौ । ७. कुल, भूमी र राज्य (नेपाल उपत्यकाको पूर्व–मध्यकालिक सामाजिक अध्ययन) – प्रयागराज शर्मा, नेपाल र एसियाली अनुसन्धान केन्द्र, त्रिभूवन विश्वविद्यालय, काठमाण्डौ । ८. सिमरौनगढक संगोष्ठि – संयोजक डा. रामदयाल राकेश, नेपाल राजकीय प्रज्ञा प्रतिष्ठान, काठमाण्डौ । ९. मिथिलाका कर्णावंशीहरु र नेपाल मण्डलमा उनीहरुको प्रभाव, भाग १ – शिवराज श्रेष्ठ ‘मल्ल’, प्रकाशक – शैलेशराज श्रेष्ठ, ललितपुर । १०. न्याय विकासिनी (मानवन्यायशाष्त्र) – सम्पादक प्रा. दिनेशराज पन्त, प्रकाशक – कानून व्यवसायी क्लब, काठमाण्डौ । ११. मैथिल करण कायस्थक पाञ्जिक सर्वेक्षण – मेजर विनोद विहारी वर्मा, प्रकाशक – क्रान्ति विहारी वर्मा, मधेपुर, मधुवनी । १२. श्री शैलेन्द्र राजोपाध्याय (अन्तरक्रिया) – पूजारी बगलामुखी मन्दिर, विराटनगर ।