मिथिला क्षेत्र पूर्वकाल से ही दार्शनिक, चिन्तक और विचारकों की भूमि रही है । यहाँ के समाज में अनेक प्रचलन तथा परम्पराएँ प्रचलित देखी जाती हैं । ऐसी परम्पराओं के प्रति लोक में विश्वास देखा जाता है । सामान्यतः इस विषय में वैज्ञानिक रूप से विचार करने पर कुछ हद तक ये अनावश्यक भी लग सकते हैं, परन्तु इन प्रचलनों में अन्तर्निहित व्यक्तिगत तथा सामाजिक भाव–बोध विषयक बातें अति महत्वपूर्ण लगते हैं । ऐसे कतिपय प्रचलनों एवम् परम्पराओं में लोक–कल्याण की भावना भी निहित रहती है । वस्तुतः ऐसी ही प्रथाओं और परम्पराओं के द्वारा मिथिला की संस्कृति समृद्ध और सम्पन्न होती है । इसी प्रसंग में मिथिला क्षेत्र में प्रचलित हँसने, रोने, शोणित खिलाने, गाली सुनाने, भोज खिलाने, नेवत पूरने तथा व्यवहार करने जैसी कुछ परम्पराओं के विषय में इस आलेख में चर्चा की जाती है । ये परम्पराएँ आधुनिक पीढ़ी के लोगों के लिए, ऐसे देखने में, कुछ अनूठी लग सकती है परन्तु समाज में इनके प्रति गहन आग्रह पायी जाती हैं, जिससे इसकी ऐतिहासिकता का बोध होता है । वर्तमान समय के वैज्ञानिक और तकनीकी विकास के युग में यद्यपि इन परम्पराओं की निरन्तरता में कुछ कमी आ गयी है और कतिपय परम्परा विस्मृत होती जा रही है, तथापि मिथिला के सामाजिक इतिहास के अन्वेषकों और अध्येताओं को यहाँ की सामाजिक परम्परा विषयक कुछ जानकारी मिल सके, इस उद्देश्य से यह आलेख प्रस्तुत किया जा रहा है । हँसने की परम्परा ः— हँसना हमारे लिए बहुत आवश्यक है । इससे हमरा शरीर और स्वास्थ्य दोनों ठीक रहते हैं । हँसने से प्रसन्नता एवम् प्रफुल्लता होने के साथ ही स्फूर्ति भी मिलती हैं । ऐसे तो हम सभी प्रायः हँसते रहते हैं, परन्तु मिथिला क्षेत्र में एक विशेष अवसर पर हँसने का प्रचलन पाया जाता है । यह अवसर होता है नव स्थापित चूल्हा में प्रथम अग्नि प्रज्वलन का समय । मिथिला क्षेत्र के ग्रामीण भागों में सभी के घर में मिट्टी का चूल्हा होता है । इस चूल्हा में जलावन की सहायता से अग्नि प्रज्वलित कर भोजन तैयार किया जाता है । चूल्हा को मैथिली भाषा में चुलहा अथवा चुलही कहा जाता है । चूल्हा बनाने की विशेष कला होती है, जिसको मृत्तिका–कला का एक अंग माना जाता है । चूल्हा बनाने को मैथिली भाषा में “चुलहा पाड़ब” कहते हैं । चूल्हा का निर्माण, खास कर, शुभ मुहूत्र्त में किया जाता है । शुभ मुहूत्र्त को मैथिली बोली में “दिन” कहते हैं, जिसे पुरोहित से पञ्चांग में दिखा कर पूछा जाता है, और उसी दिन विशेष पर चूल्हा बनाया जाता है । चूल्हा का निर्माण के सदृश ही इसकी स्थापना के भी शुभ मुहूत्र्त अथवा “दिन” होता है, जिसे पुरोहित से पूछ कर निश्चित किया जाता है । मिथिला की परम्परा में चूल्हा को सामान्यतः पूरब तथा पश्चिम की ओर मुख करके ही स्थापित किया जाता है । चूल्हा के विषय में एक उत्सुकतापूर्ण बात यह भी है कि जब चूल्हा जीर्ण हो जाता है तो इसको घर के प्रमुख पुरुष–पात्र के द्वारा अपने दाहिने पैर के तलवे से इस पर प्रहार कर इसको फोड़ा जाता है और इस भग्न चूल्हा की मिट्टी को यत्नपूर्वक बारी में किसी फलफूल के पेंड़ की जड़ में रख दिया जाता है । दूसरी ओर, कतिपय गर्भवती महिला ऐसे भग्न चूल्हा की मिट्टी को खाती भी हैं, ऐसा भी देखा गया है । मिथिला की संस्कृति में चूल्हा का अपना ही महत्व है । कलात्मक दृष्टि से देखें तो इसमें एकचुल्हिया और दूचुल्हिया जैसे प्रकार होते हैं । दूसरी ओर, दार्शनिक दृष्टि से चूल्हा का अलग महत्व देखा जाता है । चूल्हा में अग्नि को प्रज्वलित किया जाता है । अग्नि पञ्चतत्वों में से एक है, जिसका मानव जीवन के अनेक आयामों पर गहरा प्रभाव रहता है । अग्नि से भोजन बनता है, जो हमारा शरीर को स्वस्थ्य रखता है । अग्नि को हमारी संस्कृति में देवता माना गया है, अतः अग्नि स्थापना होने वाली जगह होने के कारण चूल्हा को भी पवित्र स्थल माना जाता है और प्रत्येक दिन इसको लीपा जाता है । मिथिला क्षेत्र में नव निर्मित चूल्हा को जब स्थापित करने का अवसर होता है, तब हँसने की परम्परा पायी जाती है । इस अवसर पर नव चूल्हा में प्रथमतः जब अग्नि प्रज्वलित किया जाता है, उस समय घर के सभी लोग वहाँ उपस्थित होकर हँसते हैं । चूल्हा में अग्नि प्रज्वलित करने को मैथिली भाषा में “चुलहा पजारब” कहते हैं । इस समय में घर की प्रधान महिला–पात्र द्वारा चूल्हा में जलावन लगा कर अग्नि प्रज्वलित किया जाता है । इसके लिए तैयारी की जाती है, जिसमें घर के प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में थोड़ा–थोड़ा गुड़ (मीठा) दिया जाता है, और जब चूल्हा में अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, तब सभी लोग हँसते हैं और हाथ के गुड़ को खाते हैं । वस्तुतः नव निर्मित चूल्हा में जब अग्नि की स्थापना होती है, तब इसे अग्नि देवता का आगमन मान कर उनको हँसकर अथवा प्रसन्नता पूर्वक सहर्ष स्वागत किया जाना माना जाता है । इससे अग्नि देवता सदैव प्रसन्न रहते हैं एवम् घर में कभी भी चूल्हा बन्द होने की अवस्था नहीं आती है, अर्थात् घर के लोग कभी भी भूखे नहीं रहते हैं, ऐसा विश्वास पाया जाता है । दूसरे शब्दों में, अग्नि देवता की प्रसन्नता से घर में भोजन विषयक सम्पन्नता अर्थात् समृद्धि बनी रहती हैं । रोने की परम्परा ः— इसी प्रकार मिथिला क्षेत्र में रोने की विशेष परम्परा पायी जाती है । रोना भी मानव के लिए आवश्यक है । रोने के भी कई आयाम हैं । सामान्यतः रोने के समय आँखों में आँसू आते हैं । जब शिशु जन्म लेता है, तब वह रोता है, यदि वह नहीं रोता है तो उसे यत्नतः रुलाया जाता है । साधारणतः शिशुओं का रोना स्वाभाविक माना जाता है । इसी तरह, किसी व्यथा, वेदना, दुःख, वियोग, आघात इत्यादि के कारण आँखों में आँसू आते हैं । दूसरी ओर, हर्ष के अतिरेक की अवस्था में भी आँखों में आँसू आ जाते हैं । इसे “हर्ष के आँसू” कहते हैं । कन्या के विवाह पश्चात् बिदाई के अवसर पर रोने की प्रथा है । इस तरह का प्रचलन प्रायः सभी समाज में देखा जाता है, क्योंकि यह सन्तान के बिछोड़ का अवसर होता है । बेटी का विवाह होने के बाद जब वह पति के घर जाती है, तब उस अवसर पर उसके माता–पिता, भाई–बहन, घर के लोग, संगी–सम्बन्धी सभी के नेत्र अश्रुपूरित हो आते हैं । दूसरी ओर, जब बेटी अपने ससुराल से नैहर (माता–पिता के घर ) आती है, उस समय भी रोया जाता है । यह वास्तव में हर्ष का अवसर होता है, जब बेटी अपने जन्मस्थान पर आती है और अपने माता–पिता और परिवार के लोगों के साथ मिलती है । इस के साथ ही, मिथिला की परम्परा में एक ऐसा भी अवसर होता है, जब बेटी ससुराल में होती है और उसके नैहर से जब उसके परिवार का कोई व्यक्ति उसके ससुराल में जाता है, तब वह रोती है । यह अवसर और इस अवसर पर रोने की परम्परा अनुपम लगते हैं । इस अवसर पर जब बेटी रोती है, तब वह अपने नैहर के परिवार के सभी लोगों के नाम उच्चारण कर रोती है । यथा, माय (माता), बाबूजी (पिता), भैया, भौजी, काका, काकी, बहिन इत्यादि के सम्बोधन सहित उच्चारण कर रोने की परम्परा है । इसमें और भी विलक्षण बात यह है कि इसप्रकार बेटी द्वारा नाम और सम्बोधन का उच्चारण कर रोने की आवाज उसके नैहर से आये व्यक्ति को सुनाया जाता है, अर्थात् बेटी इस तरह रोती है कि उसका नामोच्चारण सहित रोना नैहर से आये व्यक्ति स्पष्ट रूप से सुनें । क्योंकि जब वह लौटकर अपने घर आते हैं, तब उनसे पूछा जाता है कि बेटी किन–किन का नाम लेकर रोयी थी ? उनसे घर के प्रायः सभी लोग पूछते हैं कि क्या बेटी मेरा नाम लेकर भी रोयी थी ? इस पर उनके द्वारा यह कहे जाने पर कि बेटी आपका या तुम्हारा नाम भी लेकर रोयी थी, सम्बन्धित व्यक्ति स्नेह और करुणा से ओतप्रोत हो जाता है । इसप्रकार बेटी के प्रति अपार आत्मीयता उद्भूत हो आती है । इसको बेटी का अपने नैहर के लोगों के प्रति अनुराग के प्रतीक के रूप में माना जाता है । दूसरी ओर, घर–परिवार में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जिनसे कुछ अनबन या खटपट हुए होते हैं, तो वैसे व्यक्ति के नाम लेकर बेटी नहीं रोती है । और जब इस बात का पता सम्बन्धित व्यक्ति को चलता है, तब उसका अभिमान और अहंकार और बढ़ता है तथा इससे परस्पर द्वेष और घृणा में वृद्धि ही होती है । इसी तरह, मिथिला की परम्परा में रोने की विधि के अन्य अवसर भी हैं । इनमें एक रोने की विधि तब देखी जाती है, जब किसी व्यक्ति का देहान्त होता है । वैसे तो किसी व्यक्ति का देहान्त अपने आप में एक दुखद अवस्था होती है । ऐसे अवसर पर सभी के आँखों में आँसू आते हैं । मृतक के शव को चिता में अग्नि संस्कार करने बाद श्मशान से जब सभी लोग वापस लौटते हैं, तब मृतक के घर के द्वार पर एक विशेष विधि की जाती है, जिसको मैथिली भाषा में “आगि पानि लोह पाथर छूअब” कहा जाता है । इस अवसर पर सबसे पहले कर्ता और उसके बाद शवदाह क्रिया में सहभागी सभी लोग बारी–बारी से अग्नि, जल, लोहा और पत्थर का स्पर्श अपने बायाँ हाथ के कनिष्ठा अँगुली से करते हैं और सूखी मिर्च को जिह्वा से स्पर्श कराते हैं । इस अवसर पर जब कर्ता द्वार पर पहँुचता है उस समय आँगन में महिला वर्ग रोती हैं । इसके लिए, जब यह समझा जाता है कि कर्ता सहित शवदाह में गये लोग अब द्वार पर पहुँचने वाले हैं, तब रोने के लिए आँगन में महिला वर्ग एकत्र होती हैं और कर्ता के पहुँचते ही रोया जाता है । इसी प्रकार, व्यक्ति के निधन पश्चात् उसके श्राद्ध–कर्म के अन्त में भी रोने की विधि होती है । इसमें, द्वादशा श्राद्ध–कर्म के दिन घाट पर के सभी कृत्य समाप्त होने के पश्चात् जब कर्ता–व्यक्ति घर पर आता है, तब द्वार पर कर्ता के प्रवेश करने के समय आँगन में सभी महिला वर्ग रोते हैं । इस प्रकार रोने के लिए पहले से ही तैयारी की गयी होती है । इसके लिए जब कर्ता घाट पर से घर आने को प्रस्थान करता है, तब उसकी सूचना घर पर दी जाती है और रोने के लिए महिला वर्ग तैयार होती हैं । इस अवसर रोने से रुदन की ध्वनि के साथ मृतक को स्वर्ग में स्थान प्राप्त होता है, ऐसा विश्वास पाया जाता है । इस अवसर पर कहा जाता है कि जितने अधिक लोग रोते हैं, मृतक को उतना ही अधिक भाग्यवान समझा जाता है । इस सन्दर्भ में, मिथिला क्षेत्र में अति कुपित होकर किसी को कुवाक् कहना होता है तो कहते सुना जाता है कि “तोरा कुलमें कोई कननाहरि नहिं रहौ” अर्थात् तुम्हारे कुल में कोई रोनेवाले भी नहीं रहे । अर्थात् इस कुवाक् को कुल का विनाश होवे, ऐसा मनसाय बोधक माना जाता है । इस जगह गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी की पंक्ति का स्मरण हो आता है, जब रावण के देहान्त पर मन्दोदरी कहती है — राम विमुख अस हाल तुम्हारा, रहा न कुल कोई रोवनहारा । शोणित खिलाने की परम्परा ः— मिथिला क्षेत्र में शोणित (खून) खिलाने की परम्परा पायी जाती है । इसको मैथिली भाषा में “सिनेह खुआएब” कहा जाता है । सिनेह शब्द का अर्थ स्नेह होता है । इसमें शुभ विवाह के अवसर पर एक विधि की जाती है, जिसको “नहछू” कहा जाता है । मिथिला की लोकबोली में इसे “लहछू” भी कहते हैं । यह विधि वर और कन्या दोनों को, विवाह से पहले, की जाती है । इस विधि में हजाम द्वारा वर के दाहिने हाथ की तथा कन्या के बायेँ हाथ की कनिष्ठा (कनगुरिया) अँगुली में छोटा सा चीरा लगाकर थोड़ा खून निकाला जाता है और उस खून को लाल रंग में रंगी हुई रुई में ग्रहण किया जाता है । इसी को सिनेह कहा जाता है । वर जब बारात लेकर कन्या के घर विवाह के लिए जाता है तब उस रुई को सुरक्षित रूप से कन्या के घर की विधिकरी के समक्ष पहुँचाया जाता है । विधिकरी उस सधवा महिला को कहते हैं, जो विवाह सम्बन्धी विधियों का सम्पादन कराती हैं । उधर, कन्या के खून लगी रुई को भी सुरक्षित रखा गया होता है । जब विवाह की विधि सम्पन्न होती है, तब प्रातःकाल वर के सिनेह को कन्या को एवम् कन्या के सिनेह को वर को किसी भी मधुर मिष्टान्न वस्तुमें मिलाकर खिला दिया जाता है । इसप्रकार सिनेह खिलाये जाने की बात वर तथा कन्या में से किसी को भी पता नहीं होता है । उन्हें इस बात की जानकारी नहीं दी जाती, गोपनीय ढंग से इस शोणित खिलाने की विधि को सम्पन्न कर लिया जाता है । इसप्रकार, परस्पर एक दूसरे के शोणित (खून) खाने से दोनों के खून एकाकार होते हैं तथा परस्पर दाम्पत्य जीवन में प्रेम, स्नेह और मधुरता की वृद्धि होती है, ऐसा विश्वास लोक में पाया जाता है । गाली सुनाने की परम्परा ः— मिथिला क्षेत्र में गाली सुनाने की प्रथा है । इस प्रकार की प्रथा को मनोरञ्जन के रूप में लिया जाता है । समाज में साला–सालीवर्ग एवम् जीजावर्ग के बीच हँसी मजाक करने तथा इस सन्दर्भ में कुछ अश्लील शब्दों का प्रयोग करने की बात देखी जाती है । दूसरी ओर, विभिन्न शुभ सांस्कारिक अवसरों पर गाये जाने वाले गीतों में एक “डहकन” नामक विशेष गीत गाने की परम्परा है । इस डहकन गीतको दूसरे शब्दों में गाली–गीत भी कहा जा सकता है । इस गीत में अनेक अश्लील शब्दों, भावों एवम् अभिव्यक्तियों का प्रयोग होता है । विशेष कर मुण्डन, चूडाकरण, विवाह आदि संस्कारों के अवसर पर डहकन गीत गाये जाते हैं । मुण्डन और चूड़ाकरण संस्कारों के समय में ननद और भावी के बीच हँसी मजाक विषयक गीत गाये जाते हैं । ऐसे ही, शुभ वैवाहिक संस्कार अन्तर्गत के कुमरम, लाबा भूजब, बिलौकी, घोघट, चतुर्थी आदि विधियों के सम्पन्न होने के समय पर डहकन गीत गाने की प्रथा है । इसी प्रकार बारात में आये लोगों के भोजनकाल में विशेष रूपसे डहकन गीत गाये जाते हैं । मिथिला की परम्परा में विवाह सम्पन्न होने के दूसरे दिन बारातियों को विशेष मर्यादा पूर्वक निमन्त्रण देकर भोजन कराया जाता है, जिसे “मर्याद भोजन” कहा जाता है । बारातियों में समधीवर्ग के व्यक्ति भी रहा करते हैं । मिथिला की सामाजिक परम्परा में समधीवर्ग के व्यक्तियों को “परमाराध्य बहुविनयसाध्य” सदृश प्रशस्ति द्वारा अभिहित करने की परम्परा है । इससे यह ज्ञात होता है कि यहाँ समधीवर्ग को उच्चस्तरीय मान्यजन के रूप में स्वीकार किया गया है । अब यहाँ यह विचारणीय विषय है कि ऐसे मान्यजन महानुभावों को मर्यादापूर्वक भोजन कराने के अवसर पर डहकन(गाली) गीत गाकर सुनाया जाता है, और इस परम्परा को प्रसन्नतापूर्वक मनोरञ्जन के रूप में स्वीकार किया जाता है । भोज की परम्परा ः— मिथिला क्षेत्र में भोज खिलाने की अपनी खास परम्परा है । भोज का आयोजन प्रत्येक शुभ सांस्कारिक कार्य सम्पन्न होने के अवसर पर एवम् किसी के देहान्त होने पर श्राद्ध कर्म के अवसर पर किया जाता है । भोज की वस्तुओं को मुख्यतः दो प्रकारों में देखा जाता है — कच्ची और पक्की । इनमें भात, दाल, तरकारी इत्यादि वस्तुओं के भोज को कच्ची भोज तथा पूड़ी, कचौरी, मिठाई इत्यादि वस्तुओं के भोज को पक्की भोज कहा जाता है । शिशु के जन्म के उपरान्त छः दिन पर की जानेवाली छठियार विधि के दिन जो भोज का आयोजन होता है, उसमें मछली की अनिवार्यता मानी जाती है । इसीप्रकार कच्ची भोज में घी, साग और बड़ी अनिवार्य होते हैं । कच्ची भोज में आरम्भ में घी और अन्त में दही परोसा जाता है । मिथिला क्षेत्र में एक कहावत प्रसिद्ध है — आदि घी अन्त दही, ताहि भोजन के भोजन कही । इसीप्रकार, प्रायः भोज में परोसी जाने वाली सकरौड़ी नामक मिष्टान्न वस्तु कच्ची भोज में ही रहा करती है । दूसरी ओर, पक्की भोज में घी नहीं परोसा जाता । इसी तरह, एकाधिक तरकारियों को एकसाथ मिलाकर तैयार किया गया तरकारी का एक विशेष प्रकार, जिसे “डालना” कहा जाता है, पक्की भोज में ही परोसा जाता है । भोज का आयोजन विभिन्न पारिवारिक संस्कार, सामाजिक और धार्मिक अनुष्ठान, व्रत, पर्व और मांगलिक अवसर, खुशी के अवसर इत्यादि अनेक शुभ अवसरों के साथ ही पितृ कर्म के अवसरों पर किया जाता है । ऐसे अवसरों पर अनिवार्य रूप से भोज खिलाने की परम्परा है । भोज के आयोजन के विभिन्न स्वरूप होते हैं । इनमें पारिवारिक भोज में अपने परिवार और उससे सम्बन्धित व्यक्तियों को निमन्त्रण दिया जाता है । ऐसे ही, गाँव के सभी लोगों को निमन्त्रण देकर भोज खिलाया जाता है, जिसे “गमैया भोज” कहते हैं । दूसरी ओर, चार गाँवों के समूह को “चौगामा” तथा आठ गाँवों के समूह को “अठगामा” कहा जाता है । कतिपय सक्षम व्यक्ति जब भोज करते हैं तब चौगामा एवम् अठगामा में निमन्त्रण दिया जाता है । इसी तरह, मिथिला क्षेत्र के समाज में अनेक जातियों की अपनी “जातीय सभा” होती है । इस जातीय–सभा का बहुत महत्व होता है । इस सभा के अधीन कतिपय सामाजिक और अनुशासनिक अधिकार होते हैं, जिन्हें उस जाति के सभी लोग स्वीकार करते हैं । जब समाज में कोई व्यक्ति “सभा का भोज” करते हैं, तब सम्बन्धित जाति के उस क्षेत्र में निवास करनेवाले अनेक गाँवों के लोग निमन्त्रित किये जाते हैं । भोज में निमन्त्रण देने के अनेक प्रकार पाये जाते हैं । यदि एक घर से एक ही व्यक्ति को निमन्त्रित करना होता हैं तो उसे “घरजना निमन्त्रण” कहा जाता है । ऐसे ही, यदि परिवार से सभी पुरुष पात्रों को निमन्त्रण देना होता है, तो उसे “पुरुष दिशि निमन्त्रण” कहा जाता है । उसी प्रकार, यदि परिवार के सभी सदस्यों को निमन्त्रण देना होता है, तो उसे “स्त्रीगणे पुरुषे निमन्त्रण” कहते हैं । इसको दूसरे शब्दों में “सपरिवार निमन्त्रण” भी कहा जाता है । मिथिला क्षेत्र में किसी परिवार में यदि कोई अतिथि आते हैं, तो उन्हें अलग से निमन्त्रण देने की परम्परा है । इसके लिए “मान भगिनमान अतिथि अभ्यागत समेत निमन्त्रण” कहा जाता है । इस क्षेत्र में कभी–कभी “बरबरना भोज” का आयोजन होता है । इसमें बरबरना शब्द से बारह वर्णों की ओर संकेत किया गया है । मिथिला क्षेत्र के समाज में बारह–वर्ण की अवधारणा देखी जाती है । इस प्रकार के भोजों में स्पृश्य, अस्पृश्य, साधु, सन्यासी, डाँड़ातोड़ इत्यादि सभी प्रकार और जाति के लोग सहभागी किये जाते हैं । निमन्त्रण के साथ ही भोजन करने के समय की जानकारी दी जाती है, जिसे “विजहो” वा “बिज्जो” कहा जाता है । मिथिला के समाज में भोज का बड़ा महत्व माना गया है । इस अवसर पर निमन्त्रित व्यक्ति अनेक जाति, वंश, वर्ण, लिंग, समुदाय, वर्ग तथा स्तर के होते हैं । भोज में अनेक प्रकार के लोग एकसाथ समान रूप से भोजन में सहभागी होते हैं । इसप्रकार, सभी निमन्त्रित व्यक्तियों में एक प्रकार की आत्मीयता का भाव विकसित होता हैं, जो भोज के सामाजिक महत्व को प्रतिपादित करता है । दूसरी ओर, भोज का आयोजन किसी खास अवसर पर ही किया गया होता है, अतः भोज में सहभागी जनों के द्वारा उस अवसर की सामाजिक स्वीकृति के रूप में भी इसे देखा जाता है । ऐसे ही, भोज को एक प्रकार की सामाजिक प्रतिष्ठा के रूप में भी लिया जाता है । न’त पूरने की परम्परा ः— “न’त” मैथिली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है निमन्त्रण । इस निमन्त्रण अथवा न’त को, दूसरे शब्दों, में उस अवसर अथवा अनुष्ठान विशेष के विषय में जानकारी के रूप में भी लिया जाता है । समाज में प्रत्येक शुभ और अशुभ कार्य, अनुष्ठान, अवसर आदि पर निमन्त्रण देने की परम्परा है । ऐसा निमन्त्रण अपने कुटुम्बवर्ग के साथ ही समाज के अन्य वर्गों के लोगों के समक्ष भेजा जाता है । मिथिला की परम्परा में कुटुम्ब कहने से समधी, साला, जीजा (बहिनोई), साढ़ू, जमाता, भानजा सदृश नातेदारों को समझा जाता है । निमन्त्रण देने का कार्य प्रायः हजाम जाति के व्यक्ति द्वारा सम्पन्न कराया जाता है । निमन्त्रण देने के माध्यम के रूप में मौखिक, लिखित कागज, सुपारी, तुलसीदल आदि का व्यवहार किया जाता है । इस प्रकार निमन्त्रण आने पर निमन्त्रण भेजने वाले के समक्ष सम्बद्ध कार्य वा अवसर के अनुरूप उचित रीति से वस्त्र, नकद, अन्न(प्रायः चावल), दही, फलफूल इत्यादि भेजे जाते हैं । इसी को “न’त पूरना” कहा जाता है । समाज में न’त पूरने की व्यवस्था अति सम्वेदनशील होती है । इस समय में कहाँ, किस और कैसे परिवार में न’त पूरना है, इस विषय पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाता है । इस में अपनी और न’त पूरे जाने वाले परिवार की हैसियत, परस्पर दोनों परिवारों के बीच का व्यावहारिक सम्बन्ध एवम् न’त पूरने का अवसर विशेष के विषय में विचार करना अनिवार्य होता है । यह एक ऐसा गम्भीर विषय होता है, कि इसमें यदि किसी प्रकार की त्रुटि रह जाती है, तो परस्पर दोनों परिवारों में मनमुटाव बढ़ जाता है और पारिवारिक सम्बन्ध तथा व्यवहार में कटुता उत्पन्न हो जाती है । अतः मिथिला के समाज में न’त पूरने की परम्परा का बड़ा महत्व देखा जाता है । व्यवहार की परम्परा ः— मिथिला क्षेत्र के समाज में “व्यवहार” की परम्परा है । इसमें कुटुम्बवर्ग के परिवारों के सदस्यों के बीच परस्पर भेंट के अवसर पर एक–दूसरे को वस्त्र आदि प्रदान किये जाने के रूप में “व्यवहार” शब्द का प्रयोग किया जाता है । इसके अन्तरगत ऐसा माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति अपने कुटुम्बवर्ग के भीतर के किसी परिवार में अथवा किसी व्यक्ति से भेंट करने जाता है, तो उसे सम्बन्धित जगह के आदरणीय लोग अथवा व्यक्ति के लिए उचित ढंग के वस्त्र साथ लेकर जाना चाहिए । दूसरी ओर, यदि कोई व्यक्ति “व्यवहार” के साथ कहीं जाता है, तो, प्रत्युत्तर में, उसके साथ भी “व्यवहार” किया जाना चाहिए । इस “व्यवहार” में मुख्य रूप से पुरुष पात्र के वस्त्र में धोती और महिला पात्र के वस्त्र में साड़ी होने चाहिए । इसके साथ पुरुष पात्र के लिए गंजी, गमछा, रूमाल आदि तथा महिला पात्र के लिए साया, ब्लाउज के कपड़े आदि होते है । आधुनिक समय में धोती के स्थान पर पैण्ट–शर्ट के कपड़े भी दिये जाने लगे हैं । परन्तु, ध्यान देने की बात यह है कि पुरुष पात्र के वस्त्र के साथ डाराडोरि (कमर में बाँधा जानेवाला धागा विशेष) एवम् महिला पात्र यदि सधवा हो तो उसके वस्त्र के साथ सिन्दूर अनिवार्य रूपसे होने ही चाहिए । सधवा महिला के लिए सिन्दूर के साथ टिकुली, बिन्दी, लहठी, चूड़ी इत्यादि भी दिये जाते हैं । इस “व्यवहार” की व्यवस्था के निर्वहण में भी न’त पूरने की परम्परा के सदृश परस्पर दिये–लिये जाने वाले वस्त्र आदि के विषय में विचार किया जाता है । “व्यवहार” में सामञ्जस्य बने रहने से पारिवारिक सम्बन्ध ठीक रहता है और इसके साथ ही कुटुम्बवर्गों के बीच परस्पर सौहार्द्रता बनी रहती है तथा आपस में कटुता उत्पन्न होने की सम्भावना नहीं रहती है । इस प्रकार, मिथिला क्षेत्र के समाज में हँसने, रोने, शोणित खिलाने, गाली सुनाने, भोज खिलाने, न’त पूरने तथा व्यवहार करने जैसी परम्पराएँ देखी जाती हैं । विद्वानों के विचार में वस्तुतः ये परम्पराएँ आकांक्षा, कामना, श्रद्धा, अभिलाषा, अनुराग, प्रीति, प्रफुल्लता, सहृदयता, सामाजिकता, आत्मीयता, सौहाद्र्रता, सहानुभूति, समानुभूति सदृश मानवीय भावनाओं की हार्दिक अभिव्यक्तियाँ होती हैं । यद्यपि, आज के युग में, कतिपय लोग इन्हें सामाजिक कुरीतियाँ भी कह सकते हैं, परन्तु, इन परम्पराओं का जिस युग में उद्भव हुआ होगा, वह युग कैसा रहा होगा और किन परिस्थितियों में ऐसी परिम्पराएँ प्रचलित की गयी होंगी — इन विषयों पर विस्तृत रूप से गहनतम शोध, खोज और अनुसन्धान होने चाहिए, जिससे मिथिला की सांस्कृतिक चेतना विषयक जानकारी प्राप्त हो सके ।