मानव एक विवेकशील प्राणी है । मानवीय जीवन की सफलता के विभिन्न आयाम हैं, यथा – स्वास्थ्य, शिक्षा, विद्या, धन, रूप, गुण, चरित्र इत्यादि क्षेत्रों में विशिष्ट स्थान हासिल करना । प्रत्येक माता–पिता की यही कामना होती है हमारी सन्तान सर्वगुणसम्पन्न हो, उसके जीवन में कोई कष्ट नहीं हो, उसकी उन्नति, प्रगति और सुख समृद्धि में किसी भी प्रकार के विघ्न नहीं हाें । कहते हैं कि इन्ही कामनाओं की पूर्ति हेतु विद्वान चिन्तकों विचारकों तथा हमारे पूर्वजों ने कई सामाजिक और पारिवारिक परम्पराओं की नींव डाली, जिन्हें पूर्ण या आंशिक रूप से हम आज भी निर्वहन करते आ रहे हैं । इन परम्पराओं के मूल में जाने पर हमें ज्ञात होता है कि मानव सभ्यता के आदिकाल में शिक्षित लोगों की संख्या बहुत कम थी और उसमें भी विज्ञान विषयक ज्ञान कम लोगों को प्राप्त था । इसीलिए, हमारे पूर्वजों ने जीवन के हेतु लाभकारी और उपयोगी वनस्पतियों को विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों और रीति—रिवाजों से जोड़ दिया, जिससे जाने–अनजाने हम उनका उपयोग करते रहें एवम् उनके सद्गुणों से लाभान्वित होते रहें । ऐसी वनस्पतीय वस्तुओं को सांस्कारिक अवसरों पर उपयोग में लाये जाने की व्यवस्था की गयी, क्योंकि संस्कारों का उद्देश्य सफल, सुफल, समृद्ध और सुखी जीवन की उपलब्धि भी कहा गया है । हिन्दू धर्मावलम्बी समाज में कायस्थ जाति एक उच्चवर्गीय जाति के रूप में स्थापित है । यह जाति अपने सद्विचार, सुशिक्षा, सभ्यता तथा सद्गुणों के लिए प्रसिद्ध है । कायस्थ जाति के लोग अपनी विद्वता, विवेक और सेवा से समाज और राष्ट्र की उन्नति और प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान करते आए हैं । कायस्थ जाति के लोग भगवान श्रीचित्रगुप्तजी को अपना आदिपुरुष मानते हैं । चित्रगुप्त वंशीय कायस्थों के बारह शाखाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनमें श्रीवास्तव एक है । श्रीवास्तव कायस्थ में सोलह संस्कार प्रचलित है । इन संस्कारों के अवसर पर अनेक वनस्पतीय वस्तुओं का उपयोग किया जाता है । वनस्पतियों में अनेक गुण होते हैं, अतः हमारी हिन्दू संस्कृति में उन्हें पवित्र माना जाता है । इनमें मुख्य रूप से पाकर, गूलर, शमी, खएर, दूभ, कुश, अपामार्ग, अकवन और पलास इन नौ वनस्पतियों का उपयोग नवग्रह की हवन–समिधा के रूप में किया जाता है । इसीप्रकार अन्य पवित्र वनस्पतीय वस्तुओं में पीपल, तुलसी, नीम, आँवला, केला, बरगद, तील, जौ, धान, हल्दी, चन्दन, पान, सुपारी, नारियल, आम, अदरख इत्यादि आते हैं । इसप्रकार ये वनस्पतीय वस्तुएँ हमारे स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होने के साथ ही शारीरिक और मानसिक विकास के लिए भी अति महत्वपूर्ण हैं । आगे इस आलेख में श्रीवास्तव कायस्थ के संस्कारों में प्रयुक्त होनेवाली कुछ वनस्पतीय वस्तुओं के वैज्ञानिक महत्व के विषय में चर्चा की जाती है । इस आलेख में अंग्रेजी के शब्दों को तिरछे अक्षरों में रखकर लिखा गया है । (१) अदरख ः– अदरख को अंग्रेजी में जिन्जर कहा जाता है । इसका वैज्ञानिक नाम जिन्जीबर आफिसीनेली है और इसे जिन्जीबरेसी फैमिली में माना गया है । हमारी संस्कृति में सद्यःप्रसूता माता को अदरख और गुड़ खिलाये जाने का प्रचलन है । शिशु के जन्म संस्कार के अवसर पर छठियार के दिन उपस्थित महिलावृन्द में गुड़ और अदरख वितरित किया जाता है । यह एक गुणकारी वनस्पति होता है, जिसके गुण निम्नानुसार उल्लेख किये जा सकते हैं ः– (क) अदरख में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटिन, विटामिन सी तथा फालेट पाये जाते हैं । इसमें जिन्जीराल नामक तैलीय पदार्थ होता है, जो भोज्य पदार्थों में डाले जाने पर विशेष सुगन्ध उत्पन्न करता है । (ख) इसमें एण्टीइनफ्लामेटरी एवम् एण्टीऔक्सिडेन्ट गुण होते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए हितकारी होते हैं । (ग) अस्थमा जैसे रोग में यह विशेष लाभकारी होता है । इसके साथ ही, वजन कम करने, महिलाओं में मासिक धर्म को नियमित करने एवम् हृदय से सम्बन्धित परेशानियो को दूर करने में अदरख का प्रयोग लाभदायक होता है । अदरख के उपर्युक्त गुण होते हुए भी इसका प्रयोग, विशेष कर गर्भवती महिलाओं को, न्यून मात्रा में ही करना चाहिए । ऐसे ही, बवासीर के रोगी को अदरख का प्रयोग नहीं करना चाहिए । (२) आम ः– आम एक बहुत ही मीठा फल है । इसे फलों का राजा भी कहा जाता है । इसको अंग्रेजी में मैन्गो कहते हैं और इसका वैज्ञानिक नाम मैन्जीफेरा इण्डिका है । इसको एनाकारडिएसी फैमिली का माना जाता है । हमारी परम्परा में आम को आम्र भी कहते हैं और इसके वृक्ष को समृद्धि का प्रतीक माना गया है । इसीलिए, आम के पल्लव को कलश के ऊपर रखने का प्रचलन है । किसी भी शुभ अवसर पर कलश स्थापित करना और उसकी पूजा करना हमारी संस्कृति है । आम के पातों को पंचपल्लव में तथा इसकी लकड़ी को हवन समिधा के रूप में उपयोग किया जाता है । अतः आम को पवित्र वनस्पति माना गया है । वैज्ञानिक दृष्टि से भी आम अति लाभकारी फल है । इसमें पाये जानेवाले तत्वों और उनके गुणों को निम्नानुसार प्रस्तुत किया जा सकता है ः– (क) पके हुए आम फल में कार्बोहाइड्रेट के विभिन्न रूप, यथा ग्लूकोज, फुक्रोज एवम् सुक्रोज पाये जाते हैं, जो हमारे शारीरिक और मानसिक विकास के लिए अति आवश्यक रसायन होते हैं । (ख) कच्चा आम फल में साइट्रिक एसिड, मैलिक एसिड, आम्जेलिक एसिड, सम्सीनिक एसिड एवम् अन्य भी कई प्रकार के अम्ल पाये जाते हैं, जिनका श्वसन क्रिया में महत्वपूर्ण योगदान हुआ करता है । (ग) पका हुआ आम फल के रस में विटामिन ए और विटामिन सी भरपूर मात्रा में होते हैं, जो स्वास्थ्यवर्धक रसायनें हैं । (घ) आम के वृक्ष की डालियों से एक चिपचिपा रसायन उत्सर्जित होता है । इसको लोकबोली में लस अथवा लसा भी कहते हैं । इसका उपयोग चिपकाने के लिए किया जाता है । महिलायें इस लसा का प्रयोग ललाट पर बिन्दी लगाने में करती हैं । कहा जाता है कि आम की लसा लगाने से ललाट पर त्वचा सम्बन्धी विकार नहीं होता है । (३) केला ः– केला बारहो महिने में पाया जाने वाला एक बहुत ही सुन्दर और स्वादिष्ट फल है । इसको अंग्रेजी में बनाना कहते हैं । इसका वैज्ञानिक नाम म्यूसा पाराडिसिका है और इसे म्यूसेसी फैमिली का माना गया है । हमारी संस्कृति में केला को पवित्र पौधा के रूप में माना जाता है । इसके स्तम्भ को अनेक धार्मिक अनुष्ठान के अवसरों पर स्थापित किया जाता है । इस क्षेत्र में श्रीसत्यनारायण भगवान की पूजा के अवसर पर विशेष रूप से केला के स्तम्भ और इसके पात की आवश्यकता होती है । केला के पात पर पूजा करना शुभ कहा जाता है । इसीप्रकार, देव–पितृ कर्मों तथा पूजापाठ के समय में केला के पात के साथ ही इसका फल आवश्यक माना जाता है । केला में अनेक गुण हैं, जिन्हें इसप्रकार व्यक्त किया जा सकता है ः — (क) वैज्ञानिक रूप में देखने से केला पोटाशियम, विटामिन ए, विटामिन सी और विटामिन बी –६ के लिए अच्छा स्रोत है । इस फल में पाया जानेवाला पोलीफिनाल नामक रसायन आँतों में होनेवाले रक्तस्राव और पेचिस जैसे रोगों में गुणकारी होता है । (ख) यह एक एण्टीऔक्सिडेण्ट फल है, जो डाइभेनसिया, एलजामर तथा कैन्सर सदृश रोगों के उपचार में सहायक होता है । (ग) केला आइरन और पोटाशियम का भी स्रोत है । यह शरीर में हिमोग्लोबिन की मात्रा को बनाये रखने में सहायता करता है और रक्तचाप को भी नियन्त्रण में रखता है । (घ) पतला दस्त होने पर कच्चा केला की तरकारी खाने से लाभ होता है । (ङ) केला का पात चिकना, बड़ा और जलरोधक होता है, अतः इसका उपयोग भोजनपात्र के रूप में किया जाता है । कहते हैं कि केले के पत्ते पर भोजन करना सुपाच्य और स्वास्थ्यवर्धक भी होता है । दूसरी ओर, जिन्हे कब्ज की शिकायत हो, उन्हे कच्चा केला की तरकारी से परहेज करना चाहिए । इसीप्रकार, केला कफकारक फल हाने के कारण कफ–प्रकृति के लोगों को इससे परहेज करना चाहिए । (४) गन्ना ः– गन्ना को दूसरे शब्द में ईख भी कहा जाता है । इसको अंग्रेजी में सुगरकेन कहते हैं । इसका वैज्ञानिक नाम सैकरम औफिसीनेरम है और यह पोएसी फैमिली का वनस्पति होता है । गन्ना के पौधा को पवित्र पौधा माना जाता है और इसे पूजा या यज्ञ स्थलों पर स्थापित करने का प्रचलन पाया जाता है । मीठी वस्तु का प्रधान स्रोत यह गन्ना ही होता है । इसी पौधा के रस से गुड़ और चीनी तैयार किये जाते हैं । हमारी संस्कृति में चीनी की अपेक्षा गुड़ को शुद्ध माना जाता है । गुड़ के उपयोगी गुणों को निम्नानुसार अभिव्यक्त किया जा सकता है ः— (क) गुड़ को शुद्ध मानकर विभिन्न पूजा अनुष्ठानों में मिष्टान्न बनाने में उपयोग किया जाता है । (ख) गुड़ एक शक्तिबर्धक वस्तु होने के साथ ही यह हमारे शरीर से अनावश्यक तत्वों को निकालने में सहायक होता है । (ग) गुड़ में सुम्रोज के साथ ही आयरन और मिनरल भी पाये जाते हैं, जिसके कारण यह धीरे–धीरे पचता है और शरीर में ऊर्जा प्रदान करता है । (घ) गुड़ में पाया जानेवाला आयरन तत्व हमारे शरीर में खून की कमी को दूर करता है । (ङ) इसमें पाया जानेवाला मिनरल साल्ट क्लीनिंग एजेण्ट की तरह कार्य करता है, जो पेट, फेफड़ा, आँत, भोजन की नली, श्वास नली इत्यादि को साफ करने में मदद करता है । (च) कहा जाता है कि जो लोग अपने कार्य के सिलसिले में दैनिक रूप से धूल को झेलते हैं, उन्हें नियमित रूप में गुड़ का सेवन करना चाहिए । (५) जीरा ः— जीरा एक मसाला का प्रकार है, जिसको अंग्रेजी में क्यूमिन कहते हैं । इसका वैज्ञानिक नाम क्यूमिनम साइमीनम है और इसको अम्बेलीफेरी फैमिली में रखा गया है । जीरा में पौष्टिक रसायन भरपूर मात्रा में पाया जाता है । बेटी की प्रथम बिदाई के समय खोंइछा में जीरा और हल्दी दिये जाते हैं । इसीप्रकार, प्रसूति अवस्था में माता को जीरा का हलवा खिलाया जाता है । वैज्ञानिक रूप से विचार करने पर जीरा में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटिन, विटामिन, कैलसियम, मैग्नेसियम, फास्फोरस, सोडियम के साथ ही वसा भी पाये जाते हैं, जिनसे मिलनेवाले लाभों को इसप्रकार उल्लेख किया जा सकता है ः – (क) जीरा यकृत (लीवर ) के लिए अति उपयोगी पदार्थ है । इसके प्रयोग से पाचन–शक्ति बढ़ती है तथा गैस से सम्बन्धित परेशानियाँ दूर होती हैं । (ख) जीरा के उपयोग से कालेस्ट्रोल की मात्रा सन्तुलित रहती है । यह मधुमेह रोग में भी लाभदायी है । यह रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है । (ग) जीरा का नियमित प्रयोग से महिलाओं में मासिक धर्म की अनियमितता दूर होती है । (६) दूब ः— दूब को दूर्वा अथवा दूर्वादल भी कहा जाता है । लोकबोली में इसे दूभ भी कहते हैं । इसका नाम अंग्रेजी में ग्रास तथा वैज्ञानिक नाम साइनोडान डाक्टीलान है और यह पोएसीया ग्रैमिनी फैमिली का माना गया है । यद्यपि, यह एक प्रकार का घास है, जो जानवर का आहार होता है, परन्तु हमारे संस्कारों में इसका अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । इसके बिना आद्य आराध्यदेव श्री गणेशजी की पूजा पूर्ण नहीं होती । दूब को दीर्घायु और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है । इसीलिए, आशीर्वाद देने के समय में इसका प्रयोग किया जाता है । हमारे समाज में बहू–बेटी की बिदाई के समय खोंइछा में धान या चावल और हल्दी के साथ हरी दूब भी प्रदान किया जाता है, जिससे उसकी दीर्घायु के साथ ही उसका जीवन सदैव सुख–समृद्धि से पूर्ण होवे । इसप्रकार हमारी संस्कृति में दूब को पवित्र वनस्पति माना गया है । वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर दूब में फास्फोरस, कैलसियम, सोडियम, पोटाशियम, प्रोटिन, कार्बोहाइड्रेट सदृश अनेक तत्व पाये जाते हैं । इसकारण, यह पौष्टिक और औषधीय गुणों से भरपूर होता है । इसके उपयोग के विषय में कहा गया है कि ः– (क) महिलाओं में मासिक धर्म की अनियमितता को दूर करने के लिए दूब का रस को मधु के साथ मिलाकर दिन में २–३ बार लिया जाना चाहिए । (ख) दूब का लेप बनाकर उसको मानसिक तनाव में तलवे पर एवम् शिर दर्द में ललाट पर लगाये जाने पर आराम मिलता है । (ग) नाक से खून बहने में दूब का रस ४–४ बूंद नाक में डालने से लाभ होता है । (घ) दूब के रस को फिटकिरी के साथ मिलाकर कुल्ला (गारगल ) करने से मुख का अल्सर ठीक होता है । (ङ) वायु विकार (गैस ) एवम् पेट सम्बन्धी विकार में भी दूब उपयोगी है । (७) धान ः– धान को अंग्रेजी में पैडी कहते हैं, इसका वैज्ञानिक नाम ओराइजा स्टाइभा है और इसे पोएसी या गै्रमीनी फैमिली का माना जाता है । धान से चावल निकाला जाता है । चावल का प्रयोग हमारे धार्मिक अनुष्ठान और सांस्कारिक रीति–रिवाजों मे होता है । नेपाल तथा भारत के अनेक राज्यों में चावल मुख्य भोजन है । चावल में मुख्य रूप से कार्बोहाइड्रेट, पोटाशियम, मैगनेशियम, फास्फोरस, प्रोटिन तथा अन्य रसायन पाये जाते हैं, जिनका हमारे जीवन में अति महत्वपूर्ण योगदान होता है ः– (क) चावल में पाया जानेवाला कार्बोहाइड्रेट हमारे शारीरिक तथा मानसिक विकास के लिए अति आवश्यक तत्व है । (ख) इसमें रहे मैगनेशियम तत्व हड्डियों एवम् दाँतों को मजबूती प्रदान करता है । यह विभिन्न प्रकार के इन्जाइम का आवश्यक अवयव भी है, जो पाचन–प्रणाली को नियन्त्रित करने का कार्य करता है । (ग) इसमें रहे फास्फोरस तत्व प्रोटिन, न्यूम्लिक एसिड, एटिपी जैसे अनेक महत्वपूर्ण रसायिनक पदार्थों का मुख्य घटक है । ये रसायन हमारे जीवन की सभी क्रियाओं को संचालित करने में सहयोगी हैं । (घ) धान के पौधों से पुआल मिलता है, जिससे कागज, चटाई, बिठिया आदि उपयोगी वस्तुएँ बनायी जाती हैं । पुआल मवेशियों का मुख्य आहार भी है । (ङ) धान में से चावल निकालते समय जो ब्रान अथवा भूसी निष्काशित होती है, उससे तेल बनाया जाता है, जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के साबुन एवम् सौन्दर्य प्रशाधनों से सम्बन्धित वस्तुओं के निर्माण में होता है । इसीप्रकार, चावल से मदिरा का निर्माण भी किया जाता है । (८) नारियल ः— नारियल का अंग्रेजी नाम कोकोनट है और वैज्ञानिक नाम कोकस न्यूसीफेरा है । यह भी सुपारी की तरह पामेसी फैमिली का फल होता है । नारियल फल का प्रयोग प्रायः धार्मिक और सांस्कारिक अनुष्ठानों में होता है । यह पंचमेवा अन्तर्गत के पाँच फलों में से एक होता है । शुभ–विवाह के अवसर पर तिलक विधि के समय नारियल का उपयोग महत्वपूर्ण माना जाता है । इसके साथ ही, यह हमारे लिए अत्यन्त लाभकारी फल है । इसमें प्रोटिन, विटामिन तथा अनेक प्रकार के खनिज (मिनरल्स ) पाये जाते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी होते हैं, जैसे ः— (क) हरे तथा ताजे नारियल में स्वास्थ्यवर्धक वसा (फैट ) पाया जाता है, जो ऊतक की क्षति को रोकता है । (ख) नारियल के भीतर का पानी एक प्रकार का इलेक्ट्रोलाइट की तरह काम करता है । इसमें कैलोरी बहुत कम होता है । इसके साथ ही इसमें कार्बोहाइड्रेट, सुगर एवम् वसा नहीं के बराबर होते हैं । (ग) नारियल का तेल खाने तथा लगाने — दोनों कार्य में उपयोगी है । नारियल तेल में बने हुए भोज्य पदार्थ खाने से शरीर में कालेस्ट्रोल की मात्रा नियन्त्रित रहती है, तथा हृदय रोग की सम्भावना कम हो जाती है । नारियल का तेल एण्टीभाइरल, एण्टीबैक्टिरियल, एण्टीफंगल तथा एण्टीपारासाइटिक होता है । यह तेल त्वचा तथा बालों के हेतु बहुत लाभकारी होता है । यह त्वचा एवम् बालों को स्वस्थ्य रखता है और शरीर को चुस्त, दुरूस्त तथा फूर्तिला रखने में सहायता करता है । इसके प्रयोग से त्वचा का कैन्सर रोग में लाभ होता है । (घ) नारियल पाचन–शक्ति को बढ़ाता है तथा प्रोटिन और विटामिन जैसे पोषक तत्वों के अवशोषण की गति को तेज करता है । (ङ) यह कैन्सर, हृदय रोग तथा गुर्दा (किडनी ) से सम्बन्धित रोगों को एवम् पित्ताशय (गाल ब्लडर )में होने वाले संक्रमण (इन्फेक्शन ) को रोकता है । नारियल के अनेक गुणों के बावजूद इसके प्रयोग में थोड़ी सावधानी रखनी आवश्यक है, क्योंकि इसके खाने से शरीर में इन्सुलिन का उत्सर्जन बढ़ जाता है, जिससे मधुमेह रोग के लक्षण परिलक्षित होते हैं । (९) पान ः– पान को अंग्रेजी में बेटेल लीफ कहते हैं, इसका वैज्ञानिक नाम पीपर बेटेल है और इसे पीपरेसी फैमिली का माना जाता है । पान के पातों का प्रयोग प्रायः सभी धार्मिक अनुष्ठानों, सांस्कारिक कार्यों तथा देव–पितृ कर्मों के अवसर पर होता है । हमारे समाज में भोजनोपरान्त पान खाने की परम्परा है । वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर पान में पानी की मात्रा ८५ से ९० प्रतिशत पाया जाता है । इसके साथ ही इसमें अलकोलायड, विटामिन सी, निकोटिनीक एसिड, आयोडिन, पोटाशियम एवम् फास्फोरस पाये जाते हैं । इन रसायनों के कारण पान हमारे लिए लाभकारी तथा हानिकारक दोनों माना जाता है, जो इसप्रकार हैं ः– (क) पान एक एण्टीसेप्टिक, एनालजेसिक, एण्टीबैक्टेरियल, एण्टीऔक्सीडेण्ट है, जिसका उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता है । यूनानी चिकित्सा पद्धति में पान का प्रयोग रक्तशुद्धि से सम्बन्धित चिकित्सा के लिए होता है । (ख) पान हृदय, कलेजा तथा मस्तिष्क के लिए एक पौष्टिक (टानिक) का कार्य करता है । इसमें एक सुगन्धित उड़नशील तैलीय पदार्थ कैभिकोल पाया जाता है, जो रक्तचाप एवम् हृदय तथा श्वास से सम्बन्धित परेशानियों को कम करता है । (ग) त्वचा से सम्बन्धित विकार यथा फोड़ा, फुन्सी, अल्सर, शिर दर्द, जोड़ों का दर्द, अर्थराइटिस आदि में भी पान के उपयोग से लाभ होता है । (घ) पान के तीन पत्तों को नमक एवम् गर्म जल के साथ खाने से फलेरिया ठीक हो जाता है । (ङ) सूखी खाँसी में पान के पत्तों का रस के साथ मधु मिलाकर खाने से आराम मिलता है । (च) पेट में वायु (गैस), अजीर्ण अथवा किसी भी प्रकार की पाचन सम्बन्धी परेशानी हो, तो पान के पत्तों को चबाने से लाभ होता है । इसके साथ ही पान के कुछ दोष भी होते हैं, जो हमारे लिए हानिकारक हैं । पान एक एण्टी लैक्टोगु होता है, अतः गर्भवती महिला तथा सद्यःप्रसूता को पान का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसके सेवन से माताओं में दूध की मात्रा कम हो जाती है । इसीप्रकार, पान तीखा एवम् गर्म होता है, अतः एसिडिटी में तथा रक्तस्राव, खास कर मासिक धर्मचक्र के समय, में इसका उपयोग वर्जित कहा गया है । ऐसे ही, पान को उत्तेजक तत्व से पूर्ण वनस्पति के रूप में भी माना जाता है, अतः जो उत्तेजना से बचना चाहते हों, उनको भी पान का सेवन नहीं करना चाहिए । (१०) बाँस ः— बाँस एक ऐसा पौधा है, जिसका विविध रूपों में उपयोग किया जाता है । इसको अंग्रेजी में बम्बू कहा जाता है । इसका वैज्ञानिक नाम बम्बुसा भलगेरिस है । इसे पोएसी फैमिली में बम्बुसायडी सब–फैमिली अन्तर्गतका माना गया है । बाँस से अनेक प्रकार की घरेलु उपयोग की वस्तुओं का निर्माण होता है । साथ ही विभिन्न सांस्कारिक अनुष्ठानों के अवसर पर निर्माण किये जानेवाले मण्डप तथा गृह निर्माण में भी बाँस का प्रयोग होता है । हमारी संस्कृति में बाँस को वंश–वृद्धि का प्रतीक के रूप में माना गया है । बाँस में पाये जानेवाले गुणों का निम्नानुसार उल्लेख किया जा सकता है ः — (क) वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर बाँस के पत्तों में कार्बोहाइड्रेट एवम् एमिनोएसिड पाये जाते हैं, जिसके कारण इनका मुख्य रूप से चारा के काम में उपयोग किया जाता है । (ख) वंशलोचन नामक एक पदार्थ होता है, जो बाँस की डालियों के अन्दर बनता है । यह पदार्थ ठण्ढा एवम् बलबर्धक होता है । वंशलोचन का उपयोग वायुदोष, मन्दाग्नि तथा हृदय और फेफड़े की बिमारियों में किया जाता है । (ग) बाँस के नये कोमल पत्तों एवम् डालियों का रस कफ, दमा तथा पित्त की थैली के रोगों में लाभकारी होता है । इसमें प्रोटिन, विटामिन एवम् मिनरल पाये जाते हैं, जो हृदय के लिए अति गुणकारी होते हैं साथ ही हमारी रोग–प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है और हानिकारक वसा को नियन्त्रित कर वजन कम करता है । (११) सरसों ः– सरसों पीले रंग की तेलहन प्रकार की वस्तु है । इसको अंगे्रजी में मस्टर्ड कहा जाता है, और इसका वैज्ञानिक नाम बैरिसका कम्पेस्टरीस है । इसको ब्रेसीकेसीया क्रुसीफेरी फैमिली का माना जाता है । सरसों का लेप, जिसको उबटन कहा जाता है, अनेक शुभ सांस्कारिक अनुष्ठानों के अवसर पर प्रयोग में लाया जाता है । सरसों का तेल खाने एवम् शरीर में लगाने के काम में आता है । इसके वैज्ञानिक महत्व को इसप्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है ः– (क) सरसों में पोटासियम, सोडियम, जिंक, मैग्नेसियम एवम् फास्फोरस जैसे तत्व पाये जाते हैं, जो हमारे शारीरिक तथा मानसिक विकास के लिए अति आवश्यक हैं । अतः सरसों एक शक्तिवर्धक वस्तु है । (ख) इसमें पाये जानेवाले ग्लूकोसीनोलेट एवम् मीटीसीनेज नामक रसायन कैन्सर सेल की वृद्धि को रोकने के कार्य करते हैं । (ग) सरसों मे पाये जानेवाले सेलिनियम एवम् मैग्नेसियम रसायन अर्थराइटिस रोग में लाभकारी होते हैं । (घ) सरसों को मछली के साथ खाने से आमेग्रा थ्री की वृद्धि होती है, जो माइग्रेन सम्बन्धी रोग होने से बचाता है । (ङ) इसमें पाये जानेवाले आयरन और कौपर रक्तचाप को नियन्त्रित रखते हैं । (च) सरसों का तेल बाल और त्वचा के लिए लाभप्रद होता है । (१२) सुपारी ः– सुपारी का अंग्रेजी नाम एरिका नट और वैज्ञानिक नाम एरिका कैटेचु है । यह पामेसी फैमिली का वनस्पति होता है । सुपारी को कसैली भी कहते हैं । यह एक पवित्र फल माना जाता है । इसका प्रयोग सभी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों एवम् देव–पितृ कर्मों में किया जाता है । दूसरे शब्दों में इसे मुखशुद्धि भी कहा जाता है, क्योंकि भोजन के उपरान्त पान के साथ अथवा ऐसे भी सुपारी खाने की परम्परा है । सुपारी शुभ सूचक और पवित्र फल होता है, तथापि वैज्ञानिक दृष्टि से यह मानव जीवनके लिए हानिकारक पदार्थ कहा जाता है । इसमें पाये जानेवाले अलकोलायड — एरिकायडिन एवम् एरिकोलाइन के कारण इसे चबाने के बाद यह विषैला हो जाता है, अतः हानिकर हो जाता है । दूसरी ओर, कुछ विशेष परिस्थितियों में, आयुर्वेदशास्त्र अनुसार, सुपारी का प्रयोग निम्नानुसार किया जाता है ः – (क) श्वेत प्रदर (लिकोरिया ), तन्त्रिका तन्त्र (नरभस सिस्टम ), कंकाल तन्त्र (स्केलेटन सिस्टम ) एवम् मांसपेशी से सम्बन्धित परेशानियों में सुपारी का प्रयोग किया जाता है । (ख) अतिसार (डिसेन्टरी ), संग्रहणी (डायरिया ), और रक्तस्राव में सुपारी उपयोगी होता है । (ग) त्वचा पर फोड़ा, फुन्सी, घाव तथा अल्सर होने पर सुपारी का चूर्ण (पाउडर ) का उपयोग किया जाता है । (घ) कमर दर्द, पीठ दर्द तथा कलाइयों में दर्द में सुपारी का तेल मालिश करने से आराम मिलता है । उपर्युक्त औषधीय गुणों के बावजूद सुपारी को एक हानिकारक फल माना जाता है, क्योंकि इसके निरन्तर प्रयोग से जानलेवा बिमारियाँ उत्पन्न हो सकती हैं । जैसे ः– (अ) सुपारी का प्रयोग मुख, गला, भोजन नली एवम् श्वास नली में कैन्सर होने का कारण बन सकता है । (आ) हृदय रोग से ग्रस्त लोगों को सुपारी का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे हृदय गति धीमी हो सकती है । (इ) श्वास से सम्बन्धी किसी भी तकलीफ में सुपारी का प्रयोग वर्जित कहा गया है । इससे श्वास की गति धीमी हो जाती है । सुपारी का नियमित प्रयोग से दमा (अस्थमा) तथा श्वासनली शोध (ब्रोनकाइटिस) जैसे रोग उत्पन्न हो सकते हैं । (ई) विदेशों में, कुछ चिकित्सा पद्धतियों में, सुपारी को प्रयोग गर्भपतन के लिए किया जाता है, अतः गर्भवती महिलाओं को सुपारी का प्रयोग नहीं करना चाहिए । (उ) सुपारी के प्रयोग से रक्तचाप प्रभावित होता है । यह रक्तचाप को नीचे गिराने का कार्य करता है । अतएव, सुपारी का प्रयोग केवल धार्मिक और सांस्कारिक अनुष्ठानों में ही करना चाहिए । दूसरी ओर, इसका प्रयोग योग्य चिकित्सक के परामर्श अनुसार करें, इसका अभ्यस्त नहीं बनें — ऐसा कहा गया है । (१३) हल्दी ः– इसका अंग्रेजी नाम टरमेरिक, वैज्ञानिक नाम करकमा लौंगा है और इसे जीन्जीवरेसी फेमिली का माना जाता है । हल्दी प्रायः सभी शुभ कार्यों में प्रयुक्त होता है । इसके साथ ही हमारे दैनिक भोजन में अति आवश्यक मसाला के रूप में हल्दी का प्रयोग होता है । वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर हल्दी में करम्यूमिन नामक रसायन पाया जाता है, साथ ही इसमें उड़नशील तेल, प्रोटिन, रेसीन और सुगर भी पाया जाता है । हल्दी में पाया जाने वाला रसायन करम्यूमिन एक शक्तिशाली एण्टी–इन्फ्लामेट्री तथा एण्टी–औक्सीडेण्ट है, जिसके कारण हल्दी के उपयोग से निम्नलिखित लाभ होते हैं ः– (क) यह शरीर में होने वाले ऊतकों (टिश्शू) की क्षति को रोकता है । (ख) हल्दी मस्तिष्क की तन्तु–कोशिकाओं को पोषक तत्व देता है, जिससे मस्तिष्क की तन्तुओं की कार्यक्षमता बढ़ती है एवम् मस्तिष्क से सम्बन्धित रोग की सम्भावना कम हो जाती है । (ग) इसके प्रयोग से मानसिक अवसाद (डिप्रेशन ),अलजाइमर, जोड़ों का दर्द, हृदयरोग एवम् कैन्सर जैसे रोगों से छुटकारा मिलता है । जो लोग हल्दी का प्रयोग नहीं करते हैं, उनके शरीर में ब्रेन ड्राइव न्यूट्रोट्रैफिक फैक्टर नामक हार्मोन्स की कमी हो जाती है, जिससे अनेक प्रकार के रोग से शरीर ग्रसित हो जाते हैं । (घ) हल्दी मे पाया जानेवाला एण्टीसेप्टिक तत्व के कारण इसके प्रयोग से त्वचा से सम्बन्धित सभी प्रकार की परेशानी, जैसे फोड़ा, फुन्सी, खाज, खुजली, दाद, सफेद दाग इत्यादि में लाभ होता है । इसका उपयोग रक्तशोधक के रूप में रक्त सम्बन्धी विकार दूर करने के लिए भी किया जाता है । (ङ) इसमें पाया जानेवाला प्रोटिन तत्व के कारण इसको गर्म दूध के साथ प्रयोग करने से सर्दी, जुकाम, ठण्ढ, हल्का ज्वर, वदन दर्द, शिर दर्द इत्यादि में लाभ होता है । (च) हल्दी को गर्म कर चून के साथ मिलाकर लेप लगाने से हल्का मोच और हाथ–पाँव में टूट–फूट होने पर आराम मिलता है । उपर्युक्त वनस्पतियों की उपयोगिता का वर्णन हमारे विभिन्न धर्मशास्त्रों में एवम् स्वास्थ्य–विज्ञान और चिकित्साशास्त्र से सम्बन्धित पुस्तकों में मिलते हैं । ये वनस्पतियाँ हमारे संस्कारों तथा रीति–रिवाजों से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं । वर्तमान परिवेश में तथाकथित आधुनिकता की दौड़ में लिप्त हमारी नयी पीढ़ी अपनी पारम्परिक रीति–रिवाजों को छोड़ रही है और पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हो रही है । हमारी यह पीढ़ी दूसरे की नकल करते करते अपनी असलियत को भूलती जा रही है, जिससे हमारी सम्पन्न और समृद्ध संस्कृति नष्ट होने की राह पर देखी जा रही है । अतः आज आवश्यकता यह है कि हम सभी लोग अपनी परम्परा के प्रति सकारात्मक सोच के साथ समझदारी को बढ़ाएँ और इनके गुणों को अपनाते हुए इनका प्रचार और प्रसार करें । उपर्युक्त वर्णित वनस्पतीय वस्तुओं का हमलोग सदुपयोग करें, इससे लाभ उठावें और इनके संरक्षण और सम्वर्धन में सहयोगी बनें, जिससे स्वस्थ्य और सुखी समाज का निर्माण हो सके ।